मुक्तिबोधीय रचना-प्रक्रिया में अवचेतन और भाषा के अंतर्संबंध
कविता लकड़ी का रावण की अपनी रीडिंग में यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी अपने बिंबों और प्रतीकों की गतिशीलता में अवचेतन को उन्मुक्त छोड़ देती है। अवचेतन की यह उन्मुक्त उड़ान कला के मनोविश्लेषण में विघटन का भी प्रत्युत्तर है। जर्मन दार्शनिक थियोडोर डबल्यू। अडोर्नो को मनोविश्लेषण से यह आपत्ति है कि वह कला को मात्र तथ्यों के रूप में देखता है। उनके अनुसार मनोविश्लेषण के लिए कलाकृति कलाकार के अवचेतन का प्रक्षेपण मात्र है। (Aesthetic Theory, 8-9) इस दिशा में उनके अनुसार मनोविश्लेषण की पद्धति कला की वस्तुनिष्ठता, उसकी आंतरिक संगति, रूप की गतिमयता, उसके आलोचनात्मक प्रयोजन, गैरमानसिक यथार्थ से उसके संबंध तथा सबसे महत्त्वपूर्ण कला के सत्य संबंधी विचारों की उपेक्षा कर जाती है। (वही 9) मनोविश्लेषण पर इन आलोचनाओं को सामने रखते हुए वे कला की मनोवैज्ञानिक जड़ों के फैंटेसिक निरूपण की बात करते हैं। वे लिखते हैं,
“अगर कला में मनोविश्लेषणात्मक (psychoanalytic) जड़ें हैं तो वह सर्वव्यापी की फ़ैंटेसी में फ़ैंटेसी की जड़ें हैं। इस फ़ैंटेसी में एक बेहतर दुनिया को बनाने की इच्छा शामिल है। यह पूर्ण द्वंद्वात्मकता को उन्मुक्त करती है, जबकि कला को मात्र अवचेतन की आत्मगत भाषा के रूप में देखना इसको छूता तक नहीं।”(वही)
फ़्रॉइड के इस मत को कि सब-कॉन्श्स केवल दमित इच्छाओं का पुञ्ज मात्र है, नाकाफ़ी बताते हुए मुक्तिबोध भी रेखांकित करते हैं कि चेतन मन की सृजनशीलता अवचेतन शक्ति की प्राकृत धारा के बिना असंभव है। उनका एक महत्त्वपूर्ण निबंध साहित्य में व्यक्तिगत आदर्शमनोविश्लेषण और रचना-प्रक्रिया के संबंधों को उजागर करता है। मुक्तिबोध लिखते हैं:
फ़्रॉइड का यह कहना ठीक है कि कला में जो अनायसता और प्रवाह है, जो रंगीन चित्रात्मक वातावरण है, वह अवचेतन स्रोतों के कारण है। मैं अपनी एक बात स्पष्ट कर दूँ कि फ़्रॉइड का (सब-कॉन्श्स) केवल दमित इच्छाओं का पुञ्ज मात्र है। मेरे लिए वह केवल यही न होकर प्राकृत शक्ति का एक गतिमान प्रवाह है जिसके तत्त्व समाज से प्राप्त होते हैं, संस्कारों द्वारा,आनुवंशिकता द्वारा यह प्रवाह अपने शक्ति रूप में व्यक्तिगत (जेनोटाइप) होता है। परंतु प्रवाह में बहनेवाले तत्त्व सामाजिक ही होते हैं।
साहित्य में अवचेतन मन अनायसता और रंगीन चित्रात्मकता भरता है, परंतु वही प्राकृत शक्ति चेतन मन में परिकल्पना (कन्सेप्शन) होकर उस अवचेतन की चेतन में मार्ग-रेखा बनाती है। कलाकृति की कल्पना (कन्सेप्शन) चेतन मन का उच्चतर समन्वय है। कला में इन दोनों की अवचेतन शक्ति और कल्पना का सामंजस्य अनिवार्य है। अवचेतन सामंजस्य की क्रिया में चेतन को सशक्त करता है, और चेतन-अवचेतन का उदात्तीकरण (सब्लीमेशन) करता है। चेतन-अवचेतन की यह क्रियमाणता एक वैयक्तिक गति है, परंतु अवचेतन स्वयं अनभिव्यक्त और आपेक्षित रूप में दमित विकास-तृषाओं का शक्तिमान केंद्र है। (मुक्तिबोध रचनावली 5 33-34, स्वारेखांकन)
अडोर्नो और मुक्तिबोध की फ़्रॉयडीय मनोविश्लेषण पर इस आलोचना का सृजनात्मक पक्ष यह है कि वह दिखाती है कि रचना-प्रक्रिया में कलाकार की परिकल्पना ही अवचेतन की चेतन में मार्ग-रेखा बनाती है। यह चेतन और अवचेतन के द्वैत के विध्वंस का क्षण है और इस विध्वंस के पीछे नकार का बल सक्रिय है। यह नकार, पूंजी की बुनियादी इकाई, अमूर्त मानव श्रम का नकार है। सेमो टोम्सिक बताते हैं कि लकाँ द्वारा पूंजीवादी विमर्श में अन्वेषित नकारात्मकता का प्रतिबंधन, कर्ता एवं समाज के केवल अमूर्त सत्यों को ही अनुमति या स्वीकृति देता है जिन अमूर्त सत्यों को मार्क्स शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की बुनियादी अवधारणाएँ तथा पूंजीवादी विश्वदृष्टि के चार मूलभूत अंग बताते हैं। (185) इन अमूर्त सत्यों से उलट प्राकृत शक्ति के रूप में अवचेतन की यह नकारात्मकता, जीवंत श्रम अर्थात सौंदर्यात्मक श्रम की एकात्मकता (singularity) है।
इस तरह अवचेतन के दमित का कविता की बिंबात्मक या प्रतीकात्मक परिकल्पना द्वारा चेतन की मार्ग-रेखा पर उतर आना ही कविता की कला में सत्य का उजागर होना है। पूंजी के अमूर्त सत्य से उलट यह अनुभवगम्य सत्य (tangible truth) है। अवचेतन के सत्य का उद्घाटित होना यथार्थ के वास्तविक का उजागर होना है। यथार्थ के वास्तविक की संभावनाओं का प्रतीकात्मक चित्रण साहित्यिक प्रक्रिया के गतिमय पथ और इस पथ की यात्रा पर निर्भर करता है।
यह गतिमय पथ ही अवचेतन की चेतन में मार्ग-रेखा है जोकि कृति की रूपरेखा को आकार देती है। इस दिशा में जैक लकाँ के मनोविश्लेषण संबंधी उद्यम को देखना सार्थक हो सकता है क्योंकि उन्होंने ही फ़्रॉयडीय मनोविश्लेषण का उत्तरोतर विकास किया है। यह गौरतलब है कि लकाँ के अनुसार कवि मनोविश्लेषण संबंधी सत्यों को अग्रिम ही अभिव्यक्त कर देता है चाहे वे इस बात से अपरिचित ही क्यों न हो। (Mandal 135) उनके अनुसार यही साहित्य का वास्तविक है जिसको नाम कर सकने की असमर्थता की ओर समकालीन फ्रेंच दार्शनिक ऐलन बाद्यु ध्यान दिलाते हैं। मुक्तिबोधीय रचना-प्रक्रिया में यथार्थ के वास्तविक के उत्खनन का मार्गदर्शनज्ञानात्मक संवेदना करती है। तटस्थता और तन्मयता की द्वंद्वात्मकता इन्हीं प्रक्रियाओं पर निर्भर है। इस ओर संकेत करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं,
“संवेदनात्मक ज्ञान के आधार पर और ज्ञानात्मक संवेदनाओं के आधार पर, हम एक साथ तटस्थ और तन्मय, अपने से परे और अपने में निमग्न, अपने से बाहर और अपने अंदर, एक साथ रहते हैं। सहानुभूतिशील कल्पना और कल्पनाशील सहानुभूति हमें आत्म-विस्तार के लिए उद्यत करती है। संक्षेप में, बाह्य और अंतर का भेद उस समय लुप्त-सा हो जाता है।” (मुक्तिबोध रचनावली 5, 225)
विचार चिंतन का विमर्शात्मक अंकन हैं। विचार भाषा– सांकेतिकता (semiotics) के अर्थ में– की सीमा के भीतर ही संभव होता है। यहाँ भाषा संकेतक (sign) के अंकन के रूप में प्रयुक्त हो रही है। अत: विचार संकेतकों के विशिष्ट व्यवस्थापन का प्रतिफल है। इस अर्थ में विचार में भाषा का विमर्शात्मक प्रयोग होता है। दूसरी ओर सौंदर्यानुभव के क्षण से अभिप्रेरित संवेदनात्मक ज्ञान, बाह्य के इंद्रियबोध और आभ्यंतर के भावबोध के एकात्म अनुभव से संकेतकों के विसामान्यीकृत (defamiliarized) व्यवस्थापन द्वारा भाषा का गैर-विमर्शात्मक प्रयोग करता है। निश्चित रूप से इन्हीं अर्थों में कविता की भाषा गैर-विमर्शात्मक है जोकि शब्दों के अर्थों की सीमाओं को असीमता प्रदान करती है। “कविता अनिश्चित के पुन: खुलने,शब्दों के अर्थ को लाँघ जाने का विडम्बनापूर्ण कृत्य है।” (Berardi, Poetry and Finance 158, स्वानुवाद)
मुक्तिबोधीय रचना-प्रक्रिया यह आलोकित करती है कि कलाओं और विशेषत: कविता में संवेदना ही विचार का स्रोत होती है और विचार ही संवेदना को परिमार्जित करता है। अत: कविता में ज्ञान और अनुभव के सूचकांक के रूप में विचार और संवेदना अविभाज्य है। बाद्यु इसी विचार को ध्वनित करते दिखते हैं, जब वे लिखते हैं,“दूसरी तरफ तथा अधिक गंभीर रूप से, यहाँ तक कि कविता के विचार के अस्तित्व को मानते हुए, या यह कि कविता अपने आप में विचार का एक रूप है, यह विचार संवेदन से अविभाज्य है। यह एक ऐसा विचार है जिसे विचार के रूप में प्रभेदित (discerned) तथा अलग नहीं किया जा सकता।” (Handbook of Inaesthetics 19, स्वानुवाद)
अपने महत्त्वपूर्ण निबंध, व्हाट इज पोएम? ऑर फिलॉसफी एंड पोएट्री एट दी पॉइंट ऑफ़ दी अननेमेबल में बाद्यु बताते हैं कि कविता अनिवार्यता की आदर्श हुकूमत से ताल्लुक रखती है। उनके अनुसार, वह संवेदनात्मक इच्छा को विचार के संयोगाधीन आगमन के अंतर्गत कर देती है। (वही 20) हमारा मत है कि विचार का संयोगाधीन आगमन मुक्तिबोध की ज्ञानात्मक संवेदना ही है। बाद्यु के लिए यह विचार का रूप है। यह विचार के विमर्शात्मक रूप से इस अर्थ में अलग है कि यह अपनी प्रक्रियाओं के प्रकटन पर स्वयं विचार करता चलता है। ध्यातव्य हो कि मुक्तिबोध की कविताओं के बारे में यह सुविदित है कि वह सोचती-विचारती कविताएँ हैं। (अशोक वाजपेयी, कविता के तीन दरवाज़े: अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध 274)
मुक्तिबोध पर केंद्रित अपने महत्त्वपूर्ण निबंध सतह से ऊपर उठाती रचना में मलयज यह पहचानते हैं कि विचार को “अनुभूति की सुरक्षा को गँवाकर ही पाया जा सकता है।” (267) कला अनुभूति का लोप नहीं बल्कि उसका परिमार्जन है। कलात्मक प्रक्रिया अनुभूति की वैयक्तिकता का परिमार्जन कर उसे निर्वैयक्तिक बनाती है। इसी निर्वैयक्तिककरण की प्रक्रिया को उजागर करने के लिए मुक्तिबोध अपनी रचना-प्रक्रिया में ज्ञानात्मक-संवेदना की अवधारणा का प्रयोग करते हैं। मलयज के यहाँ यह ज्ञानात्मक-संवेदना प्रति-विचार है।
सतह की जड़िमा की सबसे बड़ी चुनौती इस जोखिमपूर्ण विचार से है। सतह इसीलिए विचार की सबसे प्रबल विरोधी भी है। यह विचार के बरक्स एक प्रतिविचार की रचना करती है। उतना ही सुसंगत उतना ही अर्थवान। मुक्तिबोध के यहाँ यह प्रतिविचार फ़ैंटेसी है, दु:स्वप्न, नाइटमेयर। मुक्तिबोध विचार का आह्वान करते हुए भी बार-बार अपने भीतर अनुभूति के काँटों के जंगलों में भटकते हैं। उनकी काव्यात्मा इन काँटों में बिंधकर लहूलुहान होती है। संवेदना का उद्रेक वस्तुस्थिति की नाटकीयता को कुछ देर के लिए सराबोर कर देता है। मुक्तिबोध की रचना का एक संसार प्रति-विचार से बना अनुभूति-संवेदन की मार्मिक कंटकीयता लिए हुए प्रतिसंसार भी है – उतना ही सच और उतना ही मिथ, जितना की विचार के सामने उद्भाषित होने वाला वास्तविक और प्रत्यक्ष संसार। कभी-कभी दोनों संसारों की सीमा रेखाएँ आपस में मिल जातीं हैं। कभी विरोध की मुद्रा में वे एक-दूसरे से तन जाते हैं, कभी आत्मीयता की डोर में बंधकर करीब खींच आते हैं।
मुक्तिबोध अपनी रचना-प्रक्रिया में यह पहचानते हैं कि रचना के इस प्रतिसंसार और वास्तविक तथा प्रत्यक्ष संसार के बीच अंत:क्रिया ज्ञानात्मक संवेदना द्वारा ही संभव हो पाती है। इस दिशा में विष्णुदत्त शर्मा मुक्तिबोध के संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना को ठीक ही समझते हैं जब वे ‘विचार’ को संवेदनारहित ज्ञान और ‘बौद्धिकता’ को संवेदना-समन्वित ज्ञान बताते हैं। उनका यह कहना ठीक मालूम होता है कि मुक्तिबोध की कविता का संबंध बौद्धिकता से है न की विचार से। बाद्यु के लिए काव्यात्मक विचार उस पराक्रम का नाम है जोकि वास्तविक के मिटते हुए बिंदु से टकरा जाता है। वास्तविक से यह टकराहट ही वास्तविक के रूपांकन का गतिरोध है। (Handbook of Inaesthetics 20) बाद्यु के लिए यह गतिरोध नाम कर सकने की असमर्थता है। इस तरह वे उद्घाटित करते हैं कि सत्य की हर हुकूमत अपने वास्तविक में उसको नाम कर सकने की असमर्थता के साथ टिकी होती है। अत: कविता की सत्य-प्रक्रियात्मकता यहाँ वास्तविक को नाम कर सकने की अपनी असमर्थता से टकराती है। फ़ैंटेसी की साहित्यिक विधा का गहन विश्लेषण करते हुए रोज़मेरी जैकसन भी रेखांकित करती हैं कि फैंटेसिक उसका चिह्नांकन करता है जोकि अकथनीय है। “अंतर्विरोधों तथा उभयभाविता पर संरचित, फैंटेसिक उनमें उसका चिह्नांकन करता है जोकि कहा नहीं जा सकता,जोकि ग्रंथन या अभिव्यक्ति से बच निकलता है या जोकि असत्य या अवास्तविक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।” (22,स्वानुवाद)
मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी के संदर्भ में अकथनीय के चिह्नांकन का यह विचार प्रासंगिक ही नहीं सार्थक भी जान पड़ता है। बाद्यु वास्तविक को नाम कर सकने की कविता की इस असमर्थता को भाषा की असीम शक्ति का स्रोत बताते हैं। वास्तविक को नाम न कर सकने की कविता की कमजोरी भाषा में अर्थ की नई व्यंजनाओं का आधार बनती है। वास्तविक को नाम न कर सकने के चलते कविता भाषा के नए और विसामान्यीकृत व्यवस्थापन में ही अपना आश्रय तलाशती है। निश्चित तौर पर यह विसामान्यीकृत व्यवस्थापन ही कविता को अविनिमेय बनाता है। थियरी ऑफ़ दी सब्जेक्ट में बाद्यु इसी अविनिमेय की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं,“कविता कुछ भी विनिमय नहीं करती। विनिमय का लोप ही उसका सबसे प्रमुख परिणाम है। इसके घटने के लिए, चिह्न को उस प्रक्रिया से अंतर्ध्यान हो जाना चाहिए जिसके द्वारा शब्द गति पकड़ते हुए अपनी ख़ुद की ही लोपशीलता में चमक पैदा करते हैं।”(73)
कविता,संकेतकों के रूप में शब्दों के माध्यम से केवल भाव ही प्रकट नहीं करती बल्कि शब्दों के बीच के अवकाश के तनाव से भावात्मक चमक भी पैदा करती है। यह भावात्मक चमक ही भाषा में रहते हुए भाषा का अतिक्रमण है। अत: कहा जा सकता है कि कविता भाषा की सापेक्षिक स्वायत्ता है। कविता भाषा में रहते हुए भाषा से स्वायत्त ही नहीं होती बल्कि भाषा को भी अपनी जकड़न से स्वायत्त करती है। लकाँ अर्थ की निरंतर फिसलन के रूप में संकेतक की स्वायत्ता का ज़िक्र करते हैं। लकाँ के अनुसार सांकेतिकता (signification) एक निरंतर प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में कोई भी तत्त्व, अर्थ या ‘संकेतित’ से जुड़ा हुआ नहीं होता, बल्कि हर संकेतक अगले संकेतक की तरफ बढ़ते हुए अर्थ के लिए निरंतर आग्रह करता रहता है। इस तरह अर्थ निश्चित नहीं रहता। लकाँ के अनुसार यह संकेतित की संकेतक के नीचे निरंतर फिसलन है। “… an incessant sliding of signified under signifier।” (The Agency of the Letter in the Unconscious or Reason Since Freud117)
लकाँ हालाँकि यह कदापि नहीं सुझाते की कोई ‘निश्चित’ अर्थ होता ही नहीं। इसी ‘निश्चित’ अर्थ को वे ‘एंकरिंग पॉइंट्स’ या ‘पॉइंट्स दी कैप्शन’ कहते हैं जहाँ संकेतित का संकेतक के नीचे निरंतर फिसलना थम जाता है जोकि स्थिर सांकेतिकता को संभव बनाता है। यही स्थिर सांकेतिकता सामाजिक यथार्थ का विधान करती है। संकेतित की निरंतर फिसलन का थम जाना अपने वर्चस्ववादी हस्तक्षेप से सामाजिक यथार्थ का नियमन-नियंत्रण करता है। दुनियावी व्यवहार में अर्थों की प्राथमिकता के चलते रोज़मर्रा की भाषा के रूप में संकेतित की निरंतर फिसलन का थम जाना या थाम दिया जाना भाषा की सापेक्षिक स्वायत्तता को नियंत्रित करता है। इस प्रक्रिया में भाषा अपनी गति को छोड़ कर एक जड़ स्थिति में विघटित हो जाती है। कवि व आलोचक सुधीर रंजन सिंह विज्ञापनों द्वारा काव्य-भाषा के ऐसे जड़ विनियोजन को पहचानते हैं। इस ओर संकेत करते हुए वे इन दोनों के बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर को रेखांकित करते हैं। उनके अनुसार कविता में काव्य-भाषा कविता के प्रति उत्तरदायी होने की शर्त से चिपकी रहती है जबकि विज्ञापनों की भाषा उत्पादकों और उत्पाद के प्रति उत्तरदायी होती है। (199-200) वे लिखते हैं,
“विज्ञापन काव्य-भाषा का इस्तेमाल ऐसे माल के रूप में करते हैं , जिसमें किसी सटीक बिंदु पर कोई बिकाऊ माल दर्ज हो जाए, जैसे – ‘कुछ मीठा हो जाए’ पद में कैडबेरी चॉकलेट। खरीदने भर का झंझट, बाकी कोई दुविधा-संशय नहीं। इसके विपरीत कविता में शब्द के प्रति घोर संशय की मन:स्थिति काम करती है। यह संशय ही कविता को कविता बनाती है।” (200)
प्रख्यात भाषाविद् रोमन जैकोब्सन काव्य-भाषा में संकेतक की स्वायत्ता की ओर संकेत करते हैं। उनके अनुसार संकेतक की काव्यात्मता को अभिव्यक्ति की स्वायत्ता के रूपांकन के बतौर देखा जाना चाहिए। (Tomšič 19) उनका मानना है कि यह भाषाई अनिश्चितता है जिसे सिंह संशय के रूप में देख रहे हैं।पूंजीवादी समाज में विज्ञापन की भाषा की जड़ स्थिति का बुनियादी कारण वस्तुओं के संसार के बीच मनुष्य-कर्ता का वस्तुकरण है। पूंजीवादी समाज में मनुष्य अपनी कर्मण्यता के उत्पाद से इस अर्थ में कटा होता है कि उसकी कर्मण्यता श्रम-शक्ति के रूप में विघटित कर दी जाती है। यह उसकी कर्मण्यता का निषेध है। चूंकि वस्तुओं की आंतरिक भिन्नता के चलते उनकी संबंधपरक तुलना नहीं की जा सकती इसलिए श्रम-शक्ति के रूप में कर्मण्यता के विघटन के माध्यम से ही वस्तुओं की भिन्नताओं को संबंधपरक समतुल्यता प्रदान की जाती है। दूसरे शब्दों में उनकी मूर्त या ठोस भिन्नताओं को श्रम के अमूर्त घंटों में तब्दील करते हुए भिन्नताओं का समकरण किया जाता है। इस तरह वस्तुओं के उपयोग-मूल्य का मूर्त या ठोस श्रम माल के विनिमय-मूल्य के रूप में अमूर्त-श्रम का सामान्यीकरण है। (देखें पूंजी खंड 1,अध्याय 1) इस प्रक्रिया में,मनुष्य न सिर्फ अपनी उपयोगी-वस्तुओं या उपयोगिताओं को विनिमय के माध्यम से प्राप्त करता है बल्कि अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए भी वे अपनी श्रम-शक्ति के विनिमय के लिए मजबूर होता जाता है। अत: हर उपयोगिता पर विनिमय की संबंधपरकता का ठप्पा लगा होता है। इस अर्थ में राजनीतिक-अर्थशास्त्र की यह भाषा मनुष्य की रचनात्मक उपयोगिता को प्रतिबंधित कर देती है। लेकिन यह प्रतिबंधन भी गतिमय है और इसी गतिमयता में उसका अंतर्विरोध छिपा है जिसे मुक्तिबोध की कविता पहचान लेती है। मुक्तिबोध यह पहचान लेते हैं कि सब कुछ कटने-पीटने के बावजूद कुछ लगातार बचा रह जाता है जिसे विनिमय और भाषा की स्वायत्ता का वर्चस्ववादी ठहराव अपने में नहीं समेट पाता। दूसरे शब्दों में उसे जितना ही समटेने की कोशिश की जाती है वह उतना ही बचा रह जाता है। कविता मालव-निर्झर की झर-झर कंचन-रेखा में मुक्तिबोध लिखते हैं।
जीवन-यथार्थ के गणितिक विश्लेषण में रम
तुम स्वयं, एक –
सब कुछ कटने-पीटने के बावजूद बच रहती संख्या के अनुक्रम
में देख
गहन सौंदर्य-स्वप्न-माया
गंभीर-मुखी सोचने लगी !!
मीठी विशाल लहरों में जी भी अकुलाया!!
वह नित्य शेष क्या है?
जन हैं !!
मन है, हम हैं, यह जीवन है।
(मुक्तिबोध रचनावली 2 195-196)
अत: सामूहिक-कर्ता के रूप में ‘जन’,‘मन’ और ‘हम’भाषा की हर सीमा को तोड़ देता है। आनुभविक,वास्तविक की अनुभूतियों का संकेतकों के संजाल में व्यवस्थापन है। पर सवाल यह है कि यह व्यवस्थापन संबंधपरक होगा या फिर संबंधपरकता का सतत् अतिक्रमण होगा। पूंजी खंड 1 के पहले ही अध्याय में पण्य के उपयोग-मूल्य के गुणात्मक विभेद और विनिमय-मूल्य के मात्रात्मक विभेद की भिन्नता को रेखांकित करते हुए मार्क्स यह उजागर करते हैं कि विनिमय-मूल्य में उपयोग-मूल्य का एक भी ढेला नहीं होता। चूंकि उपयोग-मूल्य,श्रम की ठोस या मूर्त विशिष्टता की भिन्नता है इसलिए विनिमय-मूल्य की समतुल्यता की माप उसका संबंधपरकता में समाहार (subsume)करती है। लेकिन इस समाहार में भिन्नता की गैर-अवधारणा (non-concept) को किसी स्थैतिक अर्थ या संबंधपरकता में बांधने की कोशिश में हमेशा ही कुछ छूटता जाता है। भिन्नता की यह गैर-अवधारणा एकात्मकता (singularity) है जोकि संबंधपरक नहीं स्वयमेव है। एकात्मकता के रूप में उपयोग-मूल्य का यह नित्य शेष ही पूंजी की नकारात्मकता अर्थात जीवंत श्रम है जिसको पूंजी अपने में पूर्णत: समाहित कर पाने में असमर्थ है। निश्चित रूप से मुक्तिबोध इसे ही जीवन की अदम्य जिजीविषा के रूप में पहचान रहे हैं। अपने कलात्मक अनुसंधान के संदर्भ में मुक्तिबोध इस नित्य-शेष को सौंदर्य की स्वप्न-माया के बतौर देखते हैं।
युवा कवि एवं आलोचक अच्युतानंद मिश्र के अनुसार भी रचना में सौंदर्य कुछ न कुछ छूटने से ही उत्पन्न होता है। दिलचस्प बात यह है कि ऐसा वे मुक्तिबोध की कविताओं के संदर्भ में ही कहते हैं। उनका मानना है कि मुक्तिबोध इन छूटे हुए अंतरालों को एक सूत्र में गढ़ते हुए विधाओं के पूर्वनिर्मित दायरों को लाँघ जाते हैं। यह गौरतलब है कि मुक्तिबोध की एक साहित्यिक की डायरी भी विधाओं के अतिक्रमण का ही परिणाम है। बहरहाल, मुक्तिबोध जानते हैं कि कविता में वास्तविक का प्रभाव भाषा के संबंधपरक और निर्देशात्मक पक्ष से निर्लिप्त होकर ही किया जा सकता है। संबंधपरकता और निर्देशात्मकता से यह निर्लिप्तता ही कविता की भाषा के संशय का मूल कारण है जिस ओर सुधीर रंजन सिंह संकेत करते हैं।
मुक्तिबोध की कविता का उपयोग-मूल्य भाषा की प्रतीकात्मक व्यवस्था को चुनौती देता है। लकाँ पहचानते हैं कि वास्तविक, प्रतीकात्मक व्यवस्था की सीमा के रूप में उसका नित्य शेष है। अन्ना कॉर्नब्लूह के लिए वास्तविक– कांतीय नोम्यूना के अर्थ में– कोई अतींद्रिय सकारात्मक सत्ता नहीं बल्कि शब्दबद्धता की परिसीमा के बतौर एक ही साथ असंभव और भौतिक है। वे ऐसी भौतिकता है जोकि असंभव है। (Kornbluh 37) निश्चित रूप से इसी अर्थ में लकाँ के लिए संकेतक वे पदार्थ है जो कि भाषा से परे ले जाता है। [टोम्सिक में उद्धृत] भाषा से परे की यह भौतिकता दरअसल भाषा और भौतिकता के सामीप्य का विधान करती है। वे भाषा को मात्र संबंधपरक और निर्देशात्मक ही नहीं रहने देती बल्कि उसको रूपकात्मक (allegorical) बनाती है। कॉर्नब्लूह लकाँ के वास्तविक के अनुकंपन को साहित्यिक भाषा में पकड़ती हैं। उनके लिए जहाँ वास्तविक असंभाव्य के रूप में संभव की सीमा है तो वहीं साहित्यिक भाषा का इस सीमा से स्पर्शोन्मुख सामीप्य है। उनके अनुसार साहित्य संभावनाओं का गुणांक है। (Kornbluh 41) वे लिखती हैं:वास्तविक के साथ साहित्य के अनुकंपन का आत्मसातीकरण उस साहित्यिक भाषा की अभिपुष्टि को अर्जित करता है जोकि मूलभूत रूप से संदर्भ और रूपक के बीच एक वियोजन (disjunction) का संचालन करती है।
साहित्यिकता का होना हमेशा पहले से ही बने-बनाए रूपकीय आवेग में नहीं,बल्कि इस वियोजित,निरर्थक तथा भौतिक शक्ति में निहित है। वियोजित– असंदिग्धता या संकल्पनात्मकता का प्रतिरोधी– साहित्य को तार्किक निर्णय के अधिदेश (mandate) के अवलंबन के बिना विप्रतिषेध (antinomy) के एक सुस्पष्ट वाहक तथा विप्रतिषेधक विचार के सौंदर्यकरण के रूप में भी सोचा जा सकता है। साहित्य प्रतिज्ञप्तिता नहीं है;बल्कि यह आंशिक,अतिव्यापी तथा प्रतिस्पर्धी स्थितियों का समन्वयन तथा सौंदर्यात्मक संगम है। (Kornbluh 42, स्वानुवाद, ज़ोर मेरा) ध्यातव्य हो कि मुक्तिबोध के लिए भी समन्वय के लिए सामंजस्य नहीं बल्कि संघर्ष की ज़रूरत होती है। वे विरूद्धों के सामंजस्य की नहीं बल्कि विरूद्धों के सतत् असामंजस्य की बात करते हैं। लकाँ के अनुसार साहित्यिक कृति छिद्रों (holes) और अपमार्जनों (erasures) से संघटित होती है। साहित्य में यह छिद्र और अपमार्जन अपठनीय और लेखन की असंभाव्यता की ओर संकेत करता है। (Mandal 137) यह असंभाव्यता वास्तविक की असंभावना है। मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी इस असंभाव्यता का बिंबात्मक-प्रतीकात्मक प्रक्षेपण भविष्यधारा कविता में करती है। लेखन की यह असंभाव्यता ही बाद्यु के दृष्टिकोण से वास्तविक के मिटते हुए बिंदु को नाम कर सकने की असमर्थता है। कविता भविष्यधारा में मुक्तिबोध वास्तविक की इसी मिटती हुई बिंदु की टकराहट से कविता के यथार्थ को विसर्जित कर देते हैं। इस तरह यहाँ वे प्रक्रियात्मक-वास्तविक के प्रवाह का प्रतीकात्मक प्रक्षेपण करते हैं जहाँ ब्रह्मांड-धूल की भविष्यधारा भविष्य-कथनों की झड़ी लगा देती है। ध्यातव्य हो कि बाद्यु का दर्शन लकाँ के मनोविश्लेषण से न सिर्फ काफ़ी हद तक प्रभावित है बल्कि बाद्यु लकाँ के मनोविश्लेषण पर ही अपने दर्शन को विकसित करते हैं। यह लकाँ ही हैं जोकि साहित्य के वास्तविक की ओर ध्यान दिलाते हैं।
साहित्य के इस वास्तविक के लिए लकाँ Lituraterre नामक शब्द गढ़ते हैं। मनोविश्लेषक शांतनु बिस्वास के अनुसार लिटुरटर्रेके माध्यम से लकाँ सादृश्य के रूप में साहित्य – जोकि छिद्रों, अपमार्जनों तथा वास्तविक को छिपाता है – से उस साहित्य की संभावना की ओर बढ़ते हैं जो सादृश्य नहीं भी हो सकता या जो छिद्रों/अपमार्जनों/वास्तविक को उद्घाटित कर सकता हो। (20) साहित्य के इस वास्तविक पहलू को उजागर करते हुए मोहतीश मंडल लिखते हैं, “साहित्य के वास्तविक पर ध्यान केंद्रित करना यथार्थ के प्रतिनिधित्व पर ध्यान केंद्रित करना नहीं है। प्रतिनिधित्व तथा यथार्थ दोनों प्रतीकात्मक के क्षेत्र में हैं। यह अंतराल और छिद्र, ग्रहण तथा मौन, अज्ञेय तथा अकथनीय एवं अभिघातक तथा शून्य ही हैं जोकि एकमात्र केंद्रबिंदु को बनाते हैं।” (137, स्वानुवाद)
अत: यह स्पष्ट है कि इन छिद्रों और अपमार्जनों द्वारा ही अवचेतन साहित्यिक कृति में प्रकट होता है। मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी अपने बिंबों और प्रतीकों की गतिशीलता में अवचेतन को उन्मुक्त छोड़ देती है। यहाँ सवाल उठता है कि कला में अवचेतन के मुक्त और उन्मुक्त होने का क्षण क्या सत्ता या सत्व (being) में किसी नए के घटित होने का भी क्षण है? दूसरे शब्दों में सवाल यह है कि सत्ता में नव कैसे घटित होता है? बाद्यु के लिए सत्ता में नव वारदात के नाम के भीतर घटित होता है जो दशा/परिस्थिति के सत्य को उद्घाटित करता है।
यहाँ सत्ता और नव के संबंधों पर प्रकाश डालते हुए मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी की प्रक्रिया में नव के घटित होने को पहचानना हमारी कोशिश है। काव्यात्मक चिंतन और भाषा पर मुक्तिबोध के विचार बहुत स्पष्ट है लेकिन महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या उसका आधार रहस्यवाद है जैसा कि रामविलास शर्मा समझते हैं या मुक्तिबोध सत्ता में नव के घटित होने को किसी अन्य तरीके से पहचानते हैं? यहाँ मुक्तिबोध की मौलिक संकल्पना कला के तीन क्षण के तीसरे क्षण में फ़ैंटेसी और भाषा के द्वंद्व को देखना सार्थक हो सकता है।
कला के तीसरे क्षण में सृजन-प्रक्रिया ज़ोरों से गतिमान होती है। कलाकार को शब्द- साधना द्वारा नए-नए भाव और नए-नए अर्थ-स्वप्न मिलने लगते हैं। पुरानी फ़ैंटेसी अब अधिक संपन्न, समृद्ध और सार्वजनीन हो जाती है। यह सार्वजनीनता, अभिव्यक्ति प्रयत्न के दौरान में शब्दों के अर्थ-स्पंदनों द्वारा पैदा होती है। अर्थ-स्पंदनों के पीछे सार्वजनिक सामाजिक अनुभवों की परंपरा होती है। इसलिए अर्थ-परम्पराएँ न केवल मूल फ़ैंटेसी को काट देती हैं, तराशती हैं, रंग उड़ा देती हैं, वरन् उसके साथ ही, वे नया रंग चढ़ा देती हैं, नए भावों और प्रवाहों से उसे संपन्न करती हैं, उसके अर्थ-क्षेत्र का विस्तार कर देती हैं। (मुक्तिबोध रचनावली 4 92)
मुक्तिबोध रेखांकित करते हैं कि इन नए भावों और प्रभावों द्वारा ही कवि को नए साक्षात्कार होने लगते हैं। क्या यह नए साक्षात्कार वास्तविक के सत्य से साक्षात्कार नहीं हैं? वे पहचानते हैं कि फ़ैंटेसी को रूपबद्ध करने की प्रक्रिया में भाषा जहाँ फ़ैंटेसी को काटती-छाँटती है तो वहीं फ़ैंटेसी भी भाषा को संपन्न और समृद्ध करती है। उनके अनुसार “कवि की यह फ़ैंटेसी भाषा को समृद्ध बना देती है, उसमें नए अर्थ-अनुषंग भर देती है, शब्द को नए चित्र प्रदान करती है। इस प्रकार, कवि भाषा का निर्माण करता है। जो कवि भाषा का निर्माण करता है, विकास करता है, वह निस्संदेह महान कवि है।” (वही 93) सत्ता में नव के घटित होने के दौरान ही कवि भाषा का निर्माण करता है। भाषा का यह निर्माण भाषा का विध्वंस भी है बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि भाषा के विध्वंस की इस प्रक्रिया में ही सत्ता प्रकृति के सतत् प्रवाह से अपने भौतिक सामीप्य के क्षण को स्पर्श करते हुए होने के गहनतम अर्थों को अभिव्यक्त करती है। कहना न होगा कि यह अभिव्यक्ति ही संवेदनशील मानवीय क्रियाकलाप के रूप में प्रक्रियात्मक आत्म या आत्म की प्रक्रिया की अन्वेषणा और खोज है।
निश्चित ही बाद्यु इसे कला, राजनीति, विज्ञान और प्रेम की सत्य-प्रक्रिया के चार क्षेत्रों में आत्म-सृजना कहेंगे। इस तरह से यह अर्थों का सृजनात्मक विध्वंस है जिसे मुक्तिबोध अर्थ-क्षेत्र का विस्तार बता रहे हैं। लकाँ के लिए अवचेतन भाषा की तरह संरचित है। फ़्रॉइड के वैयक्तिक अवचेतन और युंग के सामूहिक अवचेतन से इतर लकाँ का अवचेतन कर्ता पर निर्वैयक्तिक प्रतीकात्मक व्यवस्था का प्रभाव है। (Homer 69) यह प्रभाव संकेतकों की गतिमयता और संकेतार्थों का प्रभाव है। लकाँ ‘अन्य संकेतक के लिए कर्ता के प्रतिनिधित्व’ के रूप में संकेतक को पुनर्परिभाषित करते हैं। (Mandal 29)
इस तरह अवचेतन महा-अन्य (big Other) के विमर्श के रूप में संकेतकों की अंतर्व्यवस्था में भाषा की गाँठें हैं। भाषा की यह गाँठें भाषा की तरह संरचित अवश्य हैं लेकिन भाषा नहीं है। अत: अवचेतन, सत्ता की प्रतिबंधित रचनात्मकता की दमित इच्छाओं के पुञ्ज के बतौर भाषातीत और कालातीत है। ध्यातव्य हो कि ईडीपस ग्रंथि के विसर्जन के पश्चात ही कर्ता पिता के नियम या पितृ-नियम को स्वीकार करते हुए भाषा के प्रतीकात्मक के परिचालन में अपनी मूल दमित इच्छा (मातृ-इच्छा) को अन्य की इच्छा से मध्यस्थ करते हुए संकेतकों के संजाल में गतिमय होता है। काव्यशास्त्र और काव्यभाषा के संदर्भ में लकाँ के सिद्धांतों को अपनी व्याख्या से परिष्कृत करते हुए नारीवादी दार्शनिक जूलिया क्रिस्तएवा भी अपनी बहुचर्चित पुस्तक दी रेवोल्यूशन इन पोएटिक लैंग्वेजमें यह बताती हैं कि कर्ता का प्रतीकात्मक में अंतर्वेशन या प्रवेश उसके भाषा और वाक्य-विन्यास के अर्जन से अविभाज्य है जिसके द्वारा प्रतीकात्मक में उसका सामाजिक-कोड निर्मित होता और जारी रहता है। अत: कर्ता भाषा में संकेतकों के संजाल के बीच अपनी रचनात्मकता से निर्वासित होते हुए ही गतिमय रहता है। लेकिन इसी प्रक्रिया में क्रिस्तएवा की अंतर्दृष्टि हमें यह भी दिखाती है कि गाँठदार भाषा की तरह निर्वासित रचनात्मकता के रूप में संरचित अवचेतन अपनी नकारात्मकता के द्वारा भाषा का विनिर्माण या विसर्जन करते हुए प्रतीकात्मक को उसके भीतर से फाड़ता है। क्रिस्तएवा के लिए यह आमूल-चूल विध्वंसक क्रिया है। (Jackson 52)
क्या यह भाषा का ही विध्वंस नहीं है? यह विध्वंस अवचेतन की प्रतिबंधित रचनात्मकता के भीतर संग्रहित अभिप्रेरणाओं से भाषा में दरारें पैदा करते हुए कला में भौतिक शक्ति के उत्सर्जन को संभव बनाता है। यह भौतिक शक्ति ही मुक्तिबोध के लिए अवचेतन की प्राकृत शक्ति-धारा है। चंद्रकांत देवताले मुक्तिबोध की कविताओं में एकाएक ही प्रज्वल्लित होते जिन गाँठधार बिंबों की ओर ध्यान दिलाते हैं (215) वह दरअसल नकारात्मकता की इसी भौतिक शक्ति के उत्सर्जन के मूर्त विधान हैं। नकारात्मकता की यह भौतिक शक्ति ही अवचेतन की चेतन में मार्ग-रेखा बनाती है जोकि भाषा में रहते हुए भाषा का सतत् अतिक्रमण है, अर्थ-क्षेत्र का सतत् विस्तार है।
काव्य, सत्ता और भाषा: अनुचिंतनात्मक वृत्त या भौतिकवादी अभ्यास की ज़मीन?
जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर के लिए कला सत्ता (Being) का अनावरण है। उनके लिए काव्यात्मक चिंतन ही सत्ता की प्रामाणिकता और उसके वास्तविक अर्थ को प्रकट कर सकता है। (Tomšič 74) हाइडेगर के लिए सत्ता, विश्व में सत्ता का होना है। (Being-in-the-world) इसे ही वे दज़ाइन (Dasein) कहते हैं। उनके अनुसार सत्ता की वास्तविक मौजूदगी (presencing) सत्ता के फेंके जाने का क्षण है। सत्ता को इस विश्व में फेंक दिया गया है जिससे अस्तित्व बनता है। हाइडेगर का मानना है कि इस अस्तित्व के बनते ही सत्ता उससे अलग हो जाती है। अत: हाइडेगर के अनुसार अस्तित्व सत्ता नहीं है बल्कि सत्ता वह वास्तविक मौजूदगी है जोकि सत्ता को फेंके जाने का क्षण है। अस्तित्व से सत्ता का यह अलगाव ही हाइडेगर के अनुसार निर्वासन की परिघटनात्मकता है। (Musto 83)
इस अर्थ में सत्ता, अस्तित्व में अपने होने का सतत् प्रतिरोध है। इस अलगाव से अलग सत्ता के प्रकट होने को हाइडेगर भाषा-चिंतन द्वारा स्पष्ट करते हैं। उनके अनुसार भाषा ही सर्वप्रथम सत्ता को उनके सत्वों के लिए खोलती है और जहाँ भाषा नहीं है वहाँ सत्व नहीं खुलता है। भाषा के बारे में हाइडेगर लिखते हैं, “भाषा, सत्वों का सर्वप्रथम नामकरण करते हुए, सत्वों को सबसे पहले भाषा और प्रकटन में लाती है। केवल यह नामकरण ही सत्ता (Being) को उनकी सत्ता से सत्वों (beings) के लिए नामांकित करता है।” (Heidegger 128, स्वानुवाद)
हाइडेगर के अनुसार कविता सत्ता के अनावरण द्वारा अस्तित्व में अंतर्निहित अलगाव को भर देती है। उनके लिए कविता वह प्रक्षेपीय कथन है जो अकथनीय अर्थात सत्व को भी प्रकाश में ले आता है। “कविता प्रक्षेपीय कथन है: जगत और धरा का कथन, उनकी कलह के अखाड़े का कथन और इस तरह देवताओं की सभी निकटताओं और दूरियों के निवास का कथन। कविता, सत्वों के अनावरण का कथन है। … प्रक्षेपीय कथन वह कथन है जो कथनीय को तैयार करते हुए ठीक उसी समय अकथनीय को यथारूप विश्व में लाता है।” (वही 129, स्वानुवाद)
अत: हाइडेगर के लिए कविता भाषा का अनुचिंतनात्मक वृत्त है जो अकथनीय को प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त कर देती है। आंतरिकता के गहन अनुभव के रूप में यह अकथनीय वर्णनातीत है। अपने महत्त्वपूर्ण निबंध दी ओरिजिन ऑफ़ दी वर्क ऑफ़ आर्ट में सत्ता के अनावरण के संदर्भ में ही हाइडेगर हर कला को काव्यात्मक बताते हैं। यह स्पष्ट रहस्यवाद है। मार्क्सवादी चिंतक इस्तवान मेस्ज़ारोस हाइडेगर में इस रहस्यवाद को पहचान लेते हैं। उनके अनुसार हाइडेगर की दार्शनिक प्रविधि – सत्ता को विश्व में फेंक दिया गया है जोकि उससे अलगाव का बुनियादी कारण बनता है – व्यक्ति-विशेष और मानवजाति के बीच के भेद को धुंधला कर देती है ताकि समाज से कटा हुआ एक काल्पनिक अस्तित्वपरक कर्ता ऐतिहासिक रूप से विकसित मनुष्य और सामाजिक व्यक्ति की जगह ले सके। (Mészáros 282)
मेस्ज़ारोस पहचान लेते हैं कि इसी रहस्यवादी प्रविधि के कारण हाइडेगर को पूंजीवादी अलगाव के सामाजिक-ऐतिहासिक वैशिष्ट्य को रेखांकित करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। उनके अनुसार यह एक कुशल रहस्यवाद है।
“…जीवादी अलगाव की सामाजिक-ऐतिहासिक विशेषताओं को हाइडेगरीय तत्त्वमीमांसा की चुस्त रहस्यपरकताओं के माध्यम से सुरक्षित तरीके से पार लगा दिया गया है जोकि “मानव-जाति की अवचेतन स्थितियों” को “स्वयं दज़ाइन के तात्त्विक-अस्तित्ववादी संरचना” के रुप में महिमामंडित करता है।” (वही 283, स्वानुवाद)
इसी तरह का कुशल रहस्यवाद हमें हिंदी साहित्यिक जगत में मूर्धन्य साहित्यकार निर्मल वर्मा के यहाँ भी मिलता है। गौरतलब है कि वर्मा पर न सिर्फ हाइडेगर का प्रभाव था बल्कि वे सत्ता के अनावरण को भी बखूबी पहचानते थे। (सृजन में सोच की प्रक्रिया 55) अपने व्याख्यान सृजन में सोच की प्रक्रिया में वे बताते हैं कि सृजन में सोच कलाकार के दृष्टा होने से उत्पन्न होती है। उनके अनुसार सृजन यात्रा में दृष्टा के रूप में सोच अपने को अदृश्य रखते हुए भी “बिंबों और दृश्यों के बीच एक ऐसी प्रतीकात्मक संगति बिठा लेता है जिसमें हर परोक्ष प्रत्यक्ष मूर्तिमान हो जाता है। वह सत्य को प्रत्यक्ष में उद्घाटित करता हुआ भी उसके रहस्य को बचाए रखता है।” (वही 46)
हाइडेगर की ही तरह वर्मा के लिए यह रहस्य सत्ता के अकथनीय का रहस्य है। एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं, “आप एक प्रतीक से सत्य को उद्घाटित करते हैं, बिना उस सत्य को भाषा में लाए हुए; एक रहस्य को उद्घाटित करते हैं, उस रहस्य की रहस्यात्मकता को भंग किए बगैर।” (वही 54-55) यहाँ इस बात पर गौर करना ज़रूरी लगता है कि इस दिशा में मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी का क्या वैशिष्ट्य है? क्या वह मात्र रहस्यवादी निरूपण है या प्रकटत: रहस्यवादी निरूपण के बावजूद प्रक्रियात्मक सार की जड़ीभूतता के भौतिक कारणों की अनवरत पड़ताल भी है? गौरतलब है कि हाइडेगर के लिए सत्ता भाषा की अंतर्भूत विशेषता है न कि उसका प्रभाव मात्र। (Tomšič 58) इसी कारण हाइडेगर काव्यात्मक भाषा को सत्ता का घर बताते हैं। उनके लिए भाषा अपने मूलभूत अर्थ में कविता ही है। (Heidegger 129) यह गौरतलब है कि हाइडेगर के लिए तकनीक का आधुनिक विज्ञान द्वारा सुस्पष्ट और प्रस्तुत होना सत्ता की विस्मृति की उस ऐतिहासिक प्रक्रिया को सिद्ध करता है जिसने पश्चिमी आधिभौतिकी को निर्धारित किया था। (Tomšič 73)
ध्यातव्य हो कि अज्ञेय भी तकनीक और आधुनिकता की ऐसी ही पार-ऐतिहासिक (trans-historical) आलोचना करते हैं। उनके यहाँ भी मनुष्य की खो चुकी सत्ता का मिथकीय पुनरागमन होता है। अत: अज्ञेय के इस रहस्यवादी मिथकीय पुनरागमन का हाइडेगर के काव्य-चिंतन से स्पष्ट संबंध बनता दिखता है। (देखें, संवत्सर 71) दूसरी ओर मुक्तिबोधीय काव्य और भाषा चिंतन के दार्शनिक निहितार्थ हाइडेगरीय दार्शनिक निहितार्थों– भाषा के अनुचिंतनात्मक वृत्त – से नितांत भिन्न हैं। मुक्तिबोध वास्तविक के अकथनीय को फ़ैंटेसी में उतारने की प्रक्रिया में भाषा की सीमाओं को लाँघ जाते हैं अर्थात वे प्रतीकात्मक का निषेध करते हैं। इसी प्रक्रिया में मुक्तिबोध अपनी कविता में वास्तविक के लोप को भी पकड़ लेते हैं। मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी में ‘रूप अपने बिंब से जूझते हुए विकृताकार-कृति’ बनता है। (मुक्तिबोध रचनावली 2 317)
यह विकृति यथार्थ के भ्रमात्मक स्वभाव को उद्घाटित करते हुए शब्दबद्धता या प्रतीकात्मकता की प्रक्रिया में वास्तविक की अपरिहार्य विकृति की ओर संकेत है जोकि भुतहा वास्तव (Irreal) है। भुतहे वास्तव का रूपकीय निरूपण ही मुक्तिबोधीय रचनात्मकता है जहाँ मुक्तिबोध अपनी रचना-प्रक्रिया में वास्तविक के प्रस्फुटित तथा लोप (या विकृत) होने को रूपांकित करते हैं। उनकी फ़ैंटेसी के मायालोक का भुतहा वास्तव (Irreal) विकृत बिंबों का उद्भ्रांत संयोजन है, जहाँ अवचेतन से उठती हुई ध्वनियाँ पहले भाषा के चेतन संघटन से टकराती हुई जान पड़ती हैं और तदुपरांत चेतन के बिंबात्मक निरूपण को ग्रहण करते हुए अर्थात भाषा की रुपरेखा को धारण कर अपनी ही प्रतिध्वनि से लड़ जाती हैं।
… ये गरजती, गूँजती, आंदोलिता
गहराइयों से उठ रही ध्वनियाँ, अत:
उद्भ्रांत शब्दों के नए आवृत में
हर शब्द निज प्रति-शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने अपने बिंब से ही जूझ
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रति-ध्वनि से यहाँ।
(मुक्तिबोध रचनावली 2 317) [ब्रह्मराक्षस]
मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी का भुतहा वास्तव अपने बनने की प्रक्रिया (वास्तविक का प्रस्फुटित तथा लोप होना) को सामने रखते हुए वास्तविक के रूप में अवचेतन को उद्घाटित करता है। अवचेतन का यह उद्घाटन कृति पर विकृति की छाप लगाता है। उसे विकृताकार-कृति बनाता है तथा यथार्थ को उसके भीतर से फाड़ते हुए वास्तविक या वास्तव की विस्फारित प्रतिमाओं को सामने लाता है। “इसीलिए मेरी यह कविताएँ/भयानक हिडिंबा हैं,/वास्तव की विस्फारित प्रतिमाएँ/विकृताकृति बिंबा हैं।” (मुक्तिबोध रचनावली 2 264) इस तरह साहित्यिक फ़ैंटेसी अपने बनने की प्रक्रिया को उजागर करते हुए वास्तविक के पुनरागमन के क्षण को संभव करती है। इसी निश्चित अर्थ में मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी में वास्तविक के चिह्न पहचाने जा सकते हैं। अत: यहाँ भाषा ऐंद्रिक काया के रूप में है जोकि भौतिकवादी अभ्यास की ज़मीन है।
बाद्यु के अनुसार सत्ता का अपने अस्तित्व से प्रतिरोध लकाँ के यहाँ सत्ता का अभाव (lack of Being) है। उनके अनुसार यह युवा लकाँ हैं। वहीं दूसरी ओर वे परिपक्व या वृद्ध लकाँ के अभाव की सत्ता (Being of lack) की ओर भी ध्यान दिलाते हैं जहाँ अभाव कमी नहीं बल्कि अधिशेष या अतिक्रम (excess) के रूप में सामने आता है। (Badiou, Theory of The Subject 133) वास्तविक के रूप में यह प्रतीकात्मक ऑर्डर का अतिक्रम ही है। बाद्यु द्वारा दिखाए गए लकाँ के इन दो चरणों पर ज़ोर देते हुए ही हम हाइडेगर की अंतर्भूत आलोचना प्रस्तुत कर सकते हैं। हाइडेगर का ज़ोर सत्ता के उस अभाव को प्रस्तुत करना था जिसे विश्व में फेंका जा चुका है और अस्तित्व के संघटित होने के कारण वे अपनी सत्ता की प्रामाणिकता से अलग हो गया है। इसीलिए हाइडेगर के लिए सत्ता की प्रामाणिकता की पुन:प्राप्ति विश्व से प्रत्याहार (Withdrawal) करते हुए भाषा के प्रगाढ़ चिंतन में सत्ता के अनावरण द्वारा ही संभव है। हम देख चुके हैं कि उनके अनुसार भाषा द्वारा नामकरण ही सत्वों (beings) को उनकी सत्ता (Being) के लिए खोलता है।
इस तरह हाइडेगर के यहाँ सत्ता के दो रूप दिखते हैं। वे प्रश्न उठाते हैं कि सत्व (being) कैसे अपनी सत्ता (Being) के बारे में विचार करता है। इस वैचारिक प्रतिबिंबन को वे प्रक्षेपीय प्रकाशन कहते हैं। “प्रक्षेपण, एक फेंकने की रिहाई है जिसके माध्यम से अनावरण अपने-आप को सत्वों में यथारूप बिठा देता है। यह प्रक्षेपीय उद्घोषणा आगे चलकर उन सभी धुंधले भ्रमों का त्याग बन जाती है जहाँ सत्व (being) अपने को आच्छद करता है तथा प्रत्याहार करता है।” (Heidegger 128, स्वानुवाद) सत्ता के इन दो रूपों को बाद्यु थियरी ऑफ़ दी सब्जेक्ट में अवस्थित-सत्ता (Being-placed) तथा शुद्ध-सत्ता (Pure-Being) के रूप में प्रस्तुत करते हुए हाइडेगर की तत्त्वमीमांसीय भिन्नता (ontological difference) की दार्शनिक अवधारणा का विशिष्ट प्रयोग करते हैं। (Badiou, Theory of The Subject 7) बाद्यु सत्ता के इन दो ध्रुवों की ओर ध्यान दिलाते हुए splace नामक एक नया शब्द गढ़ते हैं जोकि दशा/परिस्थिति में किसी वस्तु के संरचनागत तथा संबंधपरक स्थान की ओर संकेत है। दूसरी ओर outplace शब्द दशा/परिस्थिति से बाहर वस्तु की गैर-स्थानिक तथा गैर-संबंधपरकता को प्रकट करता है।
ग्राहम हर्मन अपने शोध आलेख बाद्यु’स रिलेशन टू हाइडेगर इन थियरी ऑफ़ दी सब्जेक्ट में इन ध्रुवों के तनाव को प्रकट करते हुए बताते हैं कि बाद्यु के लिए “वस्तुएँ न तो पूरी तरह किसी जगह पर उत्कीर्ण हैं न ही किसी निवासविहीन उन्मुक्तता में कहीं नहीं हैं। बल्कि, प्रत्यक्षत: हेगेलीय तौर पर बाद्यु उद्घोषित करते हैं कि वस्तुएँ अपने पर अपने स्थान के अनुक्रमणिक प्रभाव द्वारा निर्धारित होती हैं, जबकि परिणामस्वरूप निर्धारित वस्तु, इसी वस्तु को उलट देने की क्षमता रखने वाले एक अनिर्धारित अतिक्रम (excess) द्वारा सीमित होती है।” (Harman 229, स्वानुवाद) अत: बाद्यु के यहाँ अवस्थित-सत्ता का अतिक्रम उसी अवस्थित-सत्ता के विध्वंस की संभावना रखता है। इस तरह बाद्यु अभाव को मात्र सत्ता में अंतर्निहित कमी तक ही सीमित नहीं करते – जैसा कि हाइडेगर करते हैं – बल्कि वे अवस्थित-सत्ता के अतिक्रम पर भी विचार करते हैं। बाद्यु इस बारे में लिखते हैं,
“विध्वंस, अभाव के प्रभाव को, स्वचालन (automatism) के रूप में विस्मृति तथा स्थान पर अतिक्रम के रूप में उसके संभावित व्यवधान – स्वचालन की अत्यंत तपिश – के हिस्से में बांटता है।” (Theory of The Subject 138, स्वानुवाद)
बाद्यु के लिए विध्वंस केवल कर्ता का अपनी ज़मीन में अभाव या कमी की तरफ रुख करना ही नहीं है बल्कि अतिक्रम से संगति उत्पन्न करते हुए परिस्थिति का पुनर्निर्माण करना भी है। (वही 140) दूसरी ओर हाइडेगर का सारा ज़ोर तत्त्वमीमांसीय भिन्नता पर है जहाँ शुद्ध-सत्ता गुमनामी के धुंधलके में खो चुकी है जबकि बाद्यु अतिक्रम के रूप में अभाव को सामने लाते हुए अवस्थित-सत्ता के विध्वंस द्वारा शुद्ध-सत्ता की झलक या प्रस्फुटन की संभावना की बात करते हैं जो कि वारदात है। बाद्यु के लिए अवस्थित-सत्ता एक-के-रूप में गणना अथवा एकरूप गणना (count-as-one) का साम्राज्य है। अत: उसका विध्वंस एकरूप गणना के रूप में दशा/परिस्थिति का विध्वंस है। अत: हाइडेगर से अलग बाद्यु का ज़ोर अवस्थित-सत्ता के विध्वंस पर है।
बाद्यु कहते हैं कि तत्त्वमीमांसीय भिन्नता एक दशा/परिस्थिति तथा उस दशा/परिस्थिति के होने के मध्य खड़ी होती है; जैसे कि हाइडेगर के लिए विचार में यह वियोजन – दशाओं/परिस्थितियों का उनके होने से वियोजन – तत्त्वमीमांसा के खुलने की गुंजाइश पैदा करता है। हालाँकि हाइडेगर के विपरीत, दशा/परिस्थिति का होना कुछ ऐसा नहीं है जिस तक केवल काव्यात्मक कथन ही पहुँच बना पाए: यह बिलकुल साधारण और मामूली रूप में एकरूप गणना से पहले बल्कि उसके प्रभाव से रहित दशा/परिस्थिति है; यह गैर-एकीकृत या असंगत बहुविधता के रूप में परिस्थिति है। एकरूप गणना के बाद या उसके प्रभाव के साथ, परिस्थिति एकीकृत या संगत बहुविधता है। (Feltham and Clemens, An Introduction to Alain Badiou’s Philosophy 11-12, स्वानुवाद)
गौरतलब है कि बाद्यु के यहाँ असंगत बहुविधता (Inconsistent Multiplicity) शून्य है जोकि सत्ता के रूप में सत्ता (Being qua Being) अर्थात शुद्ध-सत्ता का पर्याय है। उनके लिए शून्य ही सत्ता का वास्तविक नाम है। (Badiou, Being and Event 56) अत: बाद्यु का ज़ोर अवस्थित-सत्ता के विध्वंस तथा इसी प्रक्रिया में एकरूप गणना से सतत् व्यवकलन (subtraction) पर है। ध्यातव्य हो कि बाद्यु निषेध के दोनों पक्षों/क्षणों अर्थात विध्वंस तथा व्यवकलन पर ज़ोर देते हैं। (Destruction, Negation, Subtraction: On Pier Paolo Pasolini 83-84) इस तरह उनका ज़ोर तत्त्वमीमांसीय व्यवकलन (Ontological Subtraction) पर है। हाइडेगर से उलट उनकी तत्त्वमीमांसा व्यवकलनीय तत्त्वमीमांसा (Subtractive Ontology) है। स्पष्ट है कि हाइडेगर का ज़ोर भिन्नता पर है तो बाद्यु व्यवकलन पर ज़ोर देते हैं। हाइडेगर विश्व से प्रत्याहार तो करते हैं पर बिना उसे विध्वंस किए। कहा जा सकता है कि उनके यहाँ विध्वंस के बिना व्यवकलन की कोशिश है जोकि वस्तुत: व्यवकलन नहीं प्रत्याहार है। इस तरह हाइडेगर के यहाँ सत्ता अपनी सत्ता के अभाव के संदर्भ में ही प्रकट होती है जबकि बाद्यु सत्ता के अभाव (अवस्थित-सत्ता) का अभाव के अतिक्रम द्वारा निषेध करते हैं।
अवचेतन का ब्रह्मराक्षसीय क्षण: स्कित्ज़ोफ़्रेनिक प्रत्याहार
बिना संहार के, सृजन असंभव है;
समन्वय झूठ है,
सब सूर्य फूटेंगे
व उनके केंद्र टूटेंगे
उड़ेंगे खंड
बिखरेंगे गहन ब्रह्मांड में सर्वत्र
उनके नाश में तुम योग दो।
(मुक्तिबोध रचनावली 2 152) [अंत:करण का आयतन]
मुक्तिबोध ने पहचाना था कि बिना संहार (विध्वंस) के सृजन (व्यवकलन) ब्रह्मराक्षस बनना है। यहाँ हम यह सवाल उठाने के आकांक्षी हैं कि क्या ब्रह्मराक्षस हाइडेगरीय प्रत्याहार का ही फैंटेसिक निरूपण नहीं है? गौरतलब है कि ब्रह्मराक्षस में मार्क्स, एंगल्स, गांधी, रसेल और टाएनबी के साथ हाइडेगर का भी ज़िक्र आता है। यह भी विचारणीय है कि ब्रह्मराक्षस का निवास-स्थान शहर के एक ओर खंडहर की तरफ एक रहस्यमयी बावड़ी में है।
शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी ठंडे अँधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की…
सीढ़ियाँ डूबीं अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में…
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।
(मुक्तिबोध रचनावली 2 315)
फ़ैंटेसी की तर्कातीत प्रवृत्ति के वैशिष्ट्य के लिहाज़ से ब्रह्मराक्षस एक महत्त्वपूर्ण कविता है। मुक्तिबोध यहाँ हिंदू लोकविश्वास में प्रचलित ब्रह्मराक्षस के प्राचीन मिथक की नितांत आधुनिक व्याख्या करते हुए ब्रह्मराक्षस के मिथक को उसकी पूर्व-आधुनिक जकड़न से मुक्त करते हैं। हिंदू लोकविश्वासों के अनुसार वह ब्राह्मण विद्वान जो जीवित रहते अपने ज्ञान का ठीक उपयोग नहीं कर सका या किसी योग्य शिष्य को अपना ज्ञान नहीं सौंप सका मृत्यु के पश्चात प्रेत बन जाता है। इसी ब्राह्मण प्रेत को ब्रह्मराक्षस कहा जाता है। यह देखना सार्थक हो सकता है कि मुक्तिबोध किस तरह ब्रह्मराक्षस की मिथकीय छवि का विखंडन करते हुए उसका आधुनिक निरूपण प्रस्तुत करते हैं? रोज़मेरी जैक्सन आधुनिक फैंटेसिक साहित्य में दो तरह के मिथकों की ओर ध्यान दिलाती हैं। उनके अनुसार पहले तरह के मिथकों में अन्यीकरण (otherness) या ख़तरे का स्रोत स्वयं कर्ता या आत्म होता है। फ्रेंकेंस्टेनतथा डॉ। जैकाल को वे इस तरह के फैंटेसिक पैटर्न की मिसाल बताती हैं। उनके अनुसार दूसरे तरह के मिथकों में ख़तरे का स्रोत कर्ता से बाहर होता है जहाँ किसी बाहरी आक्रमण से कर्ता अन्य का हिस्सा हो जाता है।
काफ़्का के मेटामोर्फोसिसको वे इसी श्रेणी की फ़ैंटेसी बताती हैं। (33-34) मुक्तिबोध के यहाँ लकड़ी का रावण पहले तरह की फ़ैंटेसी मालूम होती है जहाँ ख़तरे का स्रोत स्वयं कर्ता या आत्म ही है। इसी तरह ब्रह्मराक्षस के दो खंड काव्य-नायक (कर्ता या आत्म) तथा काव्य-वाचक (कर्ता से बाह्य) के रूप में आधुनिक फैंटेसिक की मिथकीयता के दोनों ही पक्षों को स्पर्श करते जान पड़ते हैं। कविता के पहले खंड का मिथकीय परिवेश जैक्सन द्वारा प्रस्तावित पहली श्रेणी के मिथक के अनुरूप मालूम होता है। ध्यातव्य हो कि इस बारे में जैक्सन लिखती हैं, “संकट, अतिशय ज्ञान या तार्किकता या मानवीय चाह/इच्छा के दुरुपयोग के माध्यम से कर्ता से ही उत्पन्न होता हुआ दिखाई देता है।” (33)
गौरतलब है कि जहाँ ब्रह्मराक्षस भी अपने श्रेष्ठ ज्ञानी के विचारधारात्मक भ्रम से ग्रस्त है तो वहीं अपने वेदना-प्रसूत ज्ञान का उपयोगी क्रियान्वयन कर पाने में असफल भी है। इस प्रक्रिया में ही वह मुक्ति का नितांत वैयक्तिक महावृतांत रचता है जोकि मुक्तिबोध के शब्दों में नीच ट्रैजेडी है। इसी तरह ब्रह्मराक्षस का शिष्य कहानी में ब्रह्मराक्षस किसी योग्य शिष्य को अपना ज्ञान न सौंप सकने के कारण प्रेत योनि में पहुँच चुका है। लकड़ी का रावण की तरह प्रस्तुत कविता में भी मुक्तिबोध जैक्सन द्वारा प्रस्तावित मिथक की पहली श्रेणी का अतिक्रमण करते जान पड़ते हैं जब कविता के दूसरे खंड में काव्य-वाचक के रूप में मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षसीय ट्रैजेडी की पड़ताल करते मालूम होते हैं और ब्रह्मराक्षस के वेदना-प्रसूत ज्ञान की शोधकों (inquirers) के लिए महत्ता और उपयोगिता को रेखांकित करते हैं। इस पूरे सिलसिले में फ़ैंटेसी एक रहस्यमई परिवेश का विधान करती है।
प्रस्तुत फ़ैंटेसी का प्रकटत: रहस्यवादी परिवेश तथा एक सूनी बावड़ी में कविता की कथ्य-संरचना का रहस्यवाद उपरोक्त काव्यांश में यथेष्ट रूप से प्रस्तुत होता है। काव्यांश की आखिरी तीन पंक्तियाँ (समझ में आ न सकता हो/कि जैसे बात का आधार/लेकिन बात गहरी हो) स्पष्टत: इस रहस्य की अबोधगम्यता तथा उसकी गुप्तता या भेद को खोल देती हैं। रहस्य की यह गुप्तता ब्रह्मराक्षस की आत्म-क्रिया से जुड़ी है जिसे मुक्तिबोध इस कविता के माध्यम से खोलना चाहते हैं। ब्रह्मराक्षस की अबोधगम्य आत्म-क्रिया की रहस्यवादी ख़ामोशी इस कविता की फ़ैंटेसी को प्रकट रूप से रहस्यवादी बनाती है। मौन खड़े औदुम्बर व शाखों पर लटकते घुग्घुओं के परित्यक्त सूने घोंसले इस रहस्यवादी ख़ामोशी के साक्ष्य हैं। इस तरह कविता में बावड़ी का परिवेश और पृष्ठभूमि उपरोक्त वर्णित अबोधगम्य रहस्य और गुप्तता पर ज़ोर देते हुए रहस्य की प्रगाढ़ता को और बढ़ाते हैं।
विगत शत पुण्य का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके-सी लगी रहती।
(वही)
प्रस्तुत फ़ैंटेसी में मुक्तिबोध बिंबों की स्वायत्त गतिशीलता में कथ्य की नाटकीयता को बुनते हुए उस पर रहस्यमयता की परतें चढ़ाते जाते हैं। बिंबों की गतिशीलता जहाँ पानी में डूबीं हुई सीढ़ियों, मौन औदुम्बर और उलझी हुई डालों का संपूर्ण चित्र खींचते हुए लाक्षणिक संकेत करती है तो वहीं दूसरी ओर बीते हुए शत पुण्य के आभास का वर्णन भयावह संदेहों को पैदा करता है। बीती हुई श्रेष्ठता का दिल में खटके-सी लगी रहने का वर्णन बावड़ी के संपूर्ण लाक्षणिक चित्रण में एक भुतहे परिवेश का वितान करता है। इस तरह प्रस्तुत फ़ैंटेसी में मुक्तिबोध लाक्षणिकता और वर्णनात्मकता की द्वंद्वात्मकता को बारीकी से साधते हैं। महीन लाक्षणिक चित्रण का स्पष्ट साक्ष्य प्रस्तुत पंक्तियाँ हैं। “बावड़ी की इन मुडेरों पर/ मनोहर हरी कुहनी टेक/ बैठी है टगर / ले पुष्प-तारे श्वेत।” (316) मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी का अवलोकन इतना सूक्ष्म है कि हरी शाखों के बीच से दिखते तारों के बिंब को वह सफ़ेद पुष्प बना देती है। रहस्यमयी श्रेष्ठता और गहनता के प्रगाढ़ होने के क्रम में मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस को सामने लाते हैं जोकि उस पुराने घिरे पानी में चुपचाप बैठा लगातार कुछ दैहिक क्रियाओं की पुनरावृत्ति कर रहा है।
बावड़ी की उन घनी गहराइयों में
ब्रह्मराक्षस पैठा है
व भीतर से उमड़ती गूंज की भी गूंज,
बड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप-छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने –
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बांह-छाती-मुंह छपाछप
खूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!
और… होंठों से
अनोखा स्त्रोत, कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचना के चमकते तार !!
उस अखंड स्नान का पागल प्रवाह…
प्राण में संवेदना है स्याह!!
(वही)
भीतर से उमड़ती गूंज की भी गूंज और पागल बड़बड़ाते शब्द किसी गहन आंतरिक हलचल की ओर संकेत करते हैं। कुछ ऐसा जो ब्रह्मराक्षस के होने अर्थात उसकी सत्ता के बहुत गहरे में उतर गया है। कोई ऐसी भुतही परछाई जो उसका पीछा नहीं छोड़ रही है और जिसने उसको भीतर तक जकड़ लिया है। क्या यह पूंजी की भुतही परछाई की ही पाप-छाया है जिसकी दानवी आकर्षण-शक्ति से मुक्तिबोध का सामना आजीवन ही अपने व्यग्रता स्वप्नों में होता रहा था? अगर ऐसा है तो क्या मुक्तिबोध अपने ही अंतर्मन को इस कविता में खोलते हैं? तो क्या मुक्तिबोध स्वयं ही ब्रह्मराक्षस हैं? या एक कवि के बतौर वे अपने अवचेतन के ब्रह्मराक्षसीय क्षण का निषेध करते हैं? क्या अवचेतन के ब्रह्मराक्षसीय क्षण का निषेध मनुष्य की रचनात्मकता के प्रतिबंधन का भी निषेध नहीं है?
शहर अथवा व्यवस्था का विध्वंस किए बिना ब्रह्मराक्षस बावड़ी में अपनी आत्म-साधना में लीन अपने होने के अर्थ को पूंजी की भुतही जकड़न की मैल से आज़ाद करना चाहता है। क्या यह ब्रह्मराक्षस आधुनिक मनुष्य की उन विडम्बनाओं का ही प्रतीक नहीं है जब मनुष्य व्यवस्था को विध्वंस किए बिना अपनी आत्म-समृद्धि खोजना चाहता है? यदि ऐसा है तो हम सभी के अवचेतन में एक ब्रह्मराक्षस है। मुक्तिबोध भी अपने अवचेतन के इस ब्रह्मराक्षस को पहचान रहे थे तभी अपनी निजी डायरी में एक जगह वे लिखते हैं कि
“मैं ब्रह्मराक्षस हूँ। अनादिकाल से चला आया वह ब्रह्मराक्षस, जिसने हमेशा सही करने की कोशिश की और गलती करता चला गया।” (मुक्तिबोध रचनावली 4 177)
साहित्यिक विद्वान निखिल गोविंद मुक्तिबोध की कविता में अंतर्मन की हलचलों को पहचान लेते हैं। वे लिखते हैं,
“मुक्तिबोध … विचित्र या वीभत्स को व्यक्त करने वाले कवि हैं। वे अंतर्मन में उठनेवाले विचारों और आकृतियों को दबाने का बिलकुल प्रयास नहीं करते हैं, बल्कि उसे छंद में दबाने की बजाए कविता की भाषा से जोड़ देते हैं।” (83-84)
अवचेतन के इस ब्रह्मराक्षस और उसके निवास-स्थल को मुक्तिबोध एक साहित्यिक की डायरी में भी पहचान लेते हैं। तीसरा क्षण नामक निबंध में इस कविता के कुछ सूत्र प्राप्त होते हैं।
“मुझे लगता है मन एक रहस्यमय लोक है। उसमें अंधेरा है,अँधेरे में सीढ़ियाँ हैं। सीढ़ियाँ गीली हैं। सबसे नीचली सीढ़ी पानी में डूब गयी है। वहाँ अथाह काला जल है। उस अथाह जल से स्वयं को ही डर लगता है। इस अथाह काले जल में कोई बैठा है। वह शायद मैं ही हूँ।” (मुक्तिबोध रचनावली 4 76)
अब डायरी के इस रूपकीय निरूपण से मिलते जुलते बिंबात्मक प्रक्षेपण को कविता में देखना सार्थक ही होगा। कविता का दूसरा खंड शुरू ही इन पंक्तियों से होता है कि “खूब ऊँचा एक ज़ीना साँवला/ उसकी अँधेरी सीढ़ियाँ…/ वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।” (318) गौरतलब है कि यह निबंध जहाँ 1958 में लिखा गया था तो वहीं ब्रह्मराक्षस कविता 1956-1962 के बीच लिखी गयी थी। अत: यह स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस कविता की अवचेतन बावड़ी की रचना-प्रक्रिया को अपनी डायरी में चिह्नित कर रहे थे। मुक्तिबोध आधुनिक मनुष्य की उस ब्रह्मराक्षसीय प्रवृत्ति को उजागर कर रहे थे जो आत्म के परिसीमित होने के कारणों का व्यवस्थापरक विश्लेषण न करते हुए आत्म-विभ्रमों में फंसा हुआ है। आशुतोष कुमार मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी में विक्षिप्तता की ब्रह्मराक्षसीय प्रवृत्ति की सटीक पहचान करते हैं जब वह लिखते हैं कि “मुक्तिबोध के यहाँ कविता सभ्यता की विक्षिप्ति के साथ आत्म-विक्षिप्ति के साक्षात्कार का माध्यम भी बनती है। फ़ैंटेसी इसी साक्षात्कार का दूसरा नाम है।
परमानंद श्रीवास्तव के अनुसार भी मुक्तिबोध की कविता सत्य तक पहुँच बनाने के लिए एक पागल खोज की उत्तेजना है।(मुक्तिबोध की कविता: मूल्यांकन की समस्याएँ 58) इस दिशा में प्रस्तुत फ़ैंटेसी जहाँ एक ओर हाइडेगरीय प्रत्याहार की ओर संकेत करती है, तो वहीं दूसरी ओर ब्रह्मराक्षस की आत्म-विक्षिप्ति अर्थात उसके साइकोटिक होने की संभावना को भी सामने रखती है।
फ़्रॉइड पर लिखते हुए याक़ूब मसीह रेखांकित करते हैं कि “मनोग्रस्ति में सफाई रखने वाली प्रक्रिया विशेष रूप से देखी जाती है। उदाहरणार्थ, हाथ धोते रहना, स्नान करना, कपड़े पर गिरे धब्बे को छुड़ाते रहना, इत्यादि। प्राय:, उसमें स्पृश्यता का भय रहता है, अर्थात् उसमें आशंका बनी रहती है कि … कहीं उसने अशुद्ध वस्तु का स्पर्श तो नहीं कर लिया है, इत्यादि।” (वही 203-204) प्रस्तुत कविता में भी ब्रह्मराक्षस की दैहिक-पुनरावृत्ति में किसी मैल संभवत: पूंजी की भुतही परछाई की पाप-छाया की मैल से अपने को स्वच्छ-निर्मल कर देने की सनक सामने आती है। ब्रह्मराक्षस पूंजी की भुतही परछाई की पाप-छाया की मैल को हटाने के लिए अर्थात अपने होने या आत्म को स्वच्छ करने के लिए अपनी देह को अनवरत घिस रहा है। लेकिन फिर भी पूंजी की यह मैल उसके आत्म से खून चूसने वाले प्रेत की तरह चिपक गयी है जो उसकी रचनात्मकता को चूसे जा रही है। वह उसके भीतर तक धंस गयी है जिससे मुक्ति के उपाय के लिए वह शहर से प्रत्याहार करते हुए इस बावड़ी में क़ैद मंत्रोच्चारण कर रहा है।
यहाँ निखिल गोविंद का यह कहना सही जान पड़ता है कि ब्रह्मराक्षस का यह पागलपन मात्र आंतरिक पागलपन नहीं बल्कि सर्वव्यापी है। “‘ब्रह्मराक्षस’ केवल मनोवैज्ञानिक सत्य नहीं है बल्कि उसे मूर्त रूप देकर (शहर या कस्बे का) वह (मुक्तिबोध) संकेत करते हैं कि पागलपन सिर्फ मनुष्य के अंदर नहीं, बल्कि सर्वव्याप्त है।” (84) पागलपन की यह सर्वव्यापति ही पूंजीवादी समाज का भौतिक यथार्थ है जो सत्ता में अंतर्निहित सतत् रचनात्मकता को प्रतिबंधित रखते हुए तथा उसे पागलपन में रिड्यूस करते हुए मनुष्य-कर्ता को नियंत्रित करने के नए-नए साधनों का विकास करता रहता है। नियंत्रण के इन साधनों के विकसित होते जाने को ही मिशेल फूको अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक मैडनेस एंड सिविलाइज़ेशन में पकड़ते हैं। ब्रह्मराक्षस भी पूंजी की अदृश्य लेकिन सर्वव्यापी शक्ति द्वारा नियंत्रित है ताकि वह ‘क्लॉड ईथरली’ न हो जाए। यह गौरतलब है कि मुक्तिबोध की कहानी क्लॉड ईथरली में भी पागलखाना शहर के पार ही अवस्थित है तथा प्रस्तुत कविता में ब्रह्मराक्षस का ठिकाना भी शहर के एक ओर है।
मनोविश्लेषण में विक्षिप्त (psychotic) और स्नायविक (neurotic) में एक बुनियादी फर्क है। विक्षिप्त में जहाँ पितृ-नियम प्रतिबंधित होता है तो वहीं स्नायविक में यह दमित होता है। अत: विक्षिप्त के मामले में इडिपस ग्रंथि या मातृ-इच्छा का विसर्जन नहीं हो पाता है। पितृ-नियम के प्रतिबंधन और इसी कारण भाषा की अनुपस्थिति या अल्प विकास के परिणामस्वरूप विक्षिप्त कर्ता (psychotic subject) मुख्यत: वास्तविक के ऑर्डर पर ही आश्रित होता है। चूंकि वास्तविक से सीधा संबंध असंभव है इसी कारण इस मामले में विक्षिप्त की दुनिया तथा प्रतीकात्मक द्वारा संरचित यथार्थ के मध्य का वियोजन (disjunction) आभासों और भ्रमों के रूप में प्रस्तुत होता है।
मनोविश्लेषण के इतिहास में वुल्फ़ मैन के मतिभ्रम या श्रेबर के आभास विक्षिप्तता (psychosis) के ऐसे ही मामलों को प्रकट करते हैं। मतिभ्रम (hallucination) में यथार्थ द्वारा निष्काषित कर दिए गए उस वास्तव का पुनरागमन होता है जोकि यथार्थ में विद्यमान नहीं होता। (Mandal 105) अर्थात मतिभ्रम और आभास यथार्थ के क्षेत्र के बाहर से प्रवेश कर विक्षिप्त के यथार्थ से संबंध को विसर्जित कर देते हैं। मतिभ्रम और आभास का क्षेत्र इस तरह काल्पनिक का क्षेत्र होता है। (वही 121) क्या ब्रह्मराक्षस का भी यथार्थ से संबंध-विच्छेद नहीं हो गया है क्योंकि जब रवि या चंद्र के परमाणु दीवार से टकराकर तल तक पहुँचते हैं तो उसे यह मतिभ्रम होता है कि सूर्य ने ही झुककर उसे नमस्ते कर दिया है।
किंतु गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवाल पर
तिरछी गिरी रवि-रशिम
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया ।
पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरण टकराए
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वंदना की चाँदनी ने ज्ञान-गुरु माना उसे।
अति-प्रफुल्लित कंटकित तन-मन वही
करता रहा अनुभव के नभ ने
विनत ही मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!
(मुक्तिबोध रचनावली 2 316-317)
सेमो टोम्सिक विक्षिप्तता में यथार्थ के ऐसे विसर्जन को जड़ीभूत रूप से न देखने की सलाह देते हैं। श्रेबर के मामले पर ज़ोर देते हुए वे यह रेखांकित करते हैं कि उनका मामला मतिभ्रम से बहुत ज़्यादा था जिसने कर्ता को सामाजिक कड़ी से ही बाहर अवस्थित कर दिया था। (155) इसी तरह हाइडेगर का प्रत्याहार भी विश्व की इस संरचना से बाहर होकर भाषा के अनुचिंतनात्मक वृत्त में सत्ता के अनावरण की काव्यात्मक साधना करना है। टोम्सिक रेखांकित करते हैं कि आदर्शवादी मानवतावाद से ऐतिहासिक भौतिकवाद तक की अपनी यात्रा में मार्क्स मनुष्य की किसी खो चुकी सत्ता के विचार को त्याग चुके थे और आत्म-निर्वासन में अंतर्निहित रूपांतरणकारी सामर्थ्य को पहचान रहे थे। वे लिखते हैं कि “संरचना से अभिन्न सत्ता अब सत्ता की किसी मौलिक या मूलभूत परिपूर्णता के खो जाने के लिए नहीं बल्कि रूपांतरणकारी सामर्थ्य से संपन्न उत्पादनशील प्रक्रिया के लिए खड़ी होती है।” (वही 161, स्वानुवाद)
बावड़ी में क़ैद ब्रह्मराक्षस की अपनी मैल को निकलाते हुए शुद्ध-सत्ता को खोजने की यह सनक इस तरह उस व्यवस्था को ही और मजबूत करती है जिसने उसे विक्षिप्त बना दिया है। इस तरह मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस के माध्यम से पूंजीवादी व्यवस्था में हाइडेगरीय रहस्यवाद और मनुष्य के विक्षिप्त होने के व्यवस्थापरक कारणों का गहन विश्लेषण करते जान पड़ते हैं। हिंदी साहित्यिक बहसों में ब्रह्मराक्षस को मध्यमवर्ग के निष्क्रिय बुद्धिजीवी के रूप में देखा गया है। (नवल 105)वह श्रमिक-वर्ग के संघर्ष से कट चुका है और इसीलिए अलगाव की स्थिति में है। पर सवाल उठता है कि अगर अँधेरे में का काव्य-नायक भी मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवी ही है तो ब्रह्मराक्षस अँधेरे में के काव्य-नायक से किस तरह अलग है? साथ ही क्या ब्रह्मराक्षस अपनी बौद्धिकता की उस श्रम-प्रक्रिया को नहीं देख पा रहा कि किस तरह मुक्ति की तलाश में वे पण्डितों और चिंतकों के पास भटकता रहा? (मुक्तिबोध रचनावली 2 319)
इसी भटकने के सिलसिले में उसका सामना कीर्ति-व्यवसायियों के रूप में पूंजी की उस सर्वव्यापी दमनकारी शक्ति से होता है जिससे अभिभूत होकर सत्य की झाईं निरंतर चिचिलाती रहती है। सत्य की यह झाईं प्रज्वलित सत्य के रूप में नकारात्मकता को टाल देने का परिणाम है जिस ओर पूंजीवाद समाज के प्रति कविता में मुक्तिबोध ध्यान दिलाते हैं। पूंजी की जीवन-शक्ति, उसका रक्त इस सत्य को अवरुद्ध करता है। मुक्तिबोध जानते हैं कि पूंजी अपने सुंदर और गूढ़ जाल से पहले हमें अपने में फँसाती है तदुपरांत अपने रक्त से मनुष्य के रचनात्मक आत्म के सत्य को अवरुद्ध कर देती है।
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ’ दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
(मुक्तिबोध रचनावली 1 117)
[पूंजीवादी समाज के प्रति]
पूंजी की यह जीवनशक्ति – उसकी रक्त-कोशिकाएँ – वास्तविक अमूर्तन है जोकि दैहिक और बौद्धिक श्रम के द्वैत को बनाए रखती है। ब्रह्मराक्षस इसी द्वैत का शिकार मालूम होता है जब वह अपनी बौद्धिक श्रम-प्रक्रिया के दैहिक पक्ष को नहीं पहचान पाता। इस बिंदु पर यह सवाल उठाना ज़रूरी लगता है कि ‘अच्छे व उससे अधिक अच्छे के संघर्षों’ में उसकी पैरों की मोच और छाती के अनेकों घाव क्या उसकी विक्षिप्त श्रम-प्रक्रिया का ही निरूपण नहीं है जिसमें ‘गहन-किंचित सफलता’ है लेकिन ‘अति-भव्य असफलता’ है? ब्रह्मराक्षस की ट्रैजेडी यह कि वे कीर्ति-व्यवसायियों की व्यवस्था का विध्वंस न करते हुए बल्कि उससे पलायन करते हुए अपने होने की शुद्धता के लिए विक्षिप्त हुआ जा रहा है। मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस की विक्षिप्तता की इस निर्वासित कर्मण्यता को पागल प्रतीकों की ट्रैजेडी कहते हैं। (वही 318) स्वयं ब्रह्मराक्षस के लिए यह ट्रैजेडी व्यवस्था से इंकार करते हुए अर्थात उससे पलायन करते हुए विद्रोह की एक रोमांटिक ट्रैजेडी है। इस क्रम में वह व्यवस्था का विध्वंस नहीं करता बल्कि व्यवस्था से ‘बाहर’ अपने को किसी एकांत में क़ैद कर लेता है। यही एकांत उसके अलगाव का कारण बनता है। लेकिन इस अलगाव में भी वह अपनी प्रकटत: श्रेष्ठता में महान ज्ञानी होने की अपनी विचारधारात्मक छवि में फंसा रहता है। बावड़ी के पुराने घिरे पानी में उसका बौद्धिक उद्यम श्रेष्ठता के प्रति उसकी सनक और बद्धता को प्रस्तुत पंक्तियों में प्रकट करता है।
और, तब दुगुने भयानक ओज से
पहचानवाला मन
सुमेरी-बैबीलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र
छंदस्, मंत्र, थियोरम,
सब प्रमयों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंगलर; सार्त्र, गांधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराइयों में शून्य।
(वही 317)
सवाल यह है कि प्रकटत: श्रेष्ठता का यह विचारधारात्मक विभ्रम क्यों? क्या वह समझता है कि शहर के एक ओर अवस्थित इस सूनी बावड़ी में निवास करने के कारण वह लूट और उत्पीड़न की व्यवस्था से बाहर है? लेकिन क्या वाकई वह व्यवस्था से बाहर है? मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस के निवास-स्थान के इस प्रतीकात्मक निरूपण से क्या संकेत देना चाहते हैं? साथ ही जब वे ब्रह्मराक्षसीय परिघटना को ट्रैजेडी कहते हैं तब वे क्या कहना चाहते हैं? आखिर यह ट्रैजेडी क्या और क्यों है? व्यवस्था से बाहर होने के ब्रह्मराक्षसीय दावे की आलोचना करते हुए पोथिक घोष ब्रह्मराक्षस की ट्रैजेडी को खोलते हैं। यह गौरतलब है कि उनके अनुसार भी ब्रह्मराक्षस की ट्रैजेडी यह है कि वह विनिमय की संरचना से प्रत्याहार की अपनी क्रिया में फंसा हुआ है जोकि बुनियादी रूप से व्यवकलन से अलग है। घोष लिखते हैं,“उसे इस बात का बहुत कम अहसास है कि व्यवकलन, विनिमय की संरचना और संबंधपरकता से प्रत्याहार करना नहीं बल्कि व्यवकलनीयता (subtractiveness) के रूप में तथा व्यवकलनीय तत्त्वमीमांसा में सामान्यीकरण के माध्यम से उसका अस्वीकार तथा विध्वंस है।” (99, स्वानुवाद) ब्रह्मराक्षस की आत्म-क्रिया में हम यह स्पष्टत: देखते हैं कि व्यवस्था से बाहर रहने की इच्छा से वह कितना ग्रस्त है। इस दिशा में घोष कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल उठाते हैं। वे लिखते हैं:
क्या ब्रह्मराक्षस की पवित्रता कि जिसकी तलाश वह अपने से पाप की छाया, जमाने भर की सारी मैल और जमी हुई गंदगी को पागलों की तरह साफ करते हुए तथा उसी जमाने से अपने को काट कर खोज रहा है, उसको पाप, मैल और कचरे के ढेर के ही रूप में लगातार उलझाए नहीं रख रही? क्या यह उसका पवित्र रहने का जुनून ही नहीं है जोकि ब्रह्मराक्षस को उसकी मैल और गंदगी साफ करने से रोकता है तथा इस तरह उसकी कल्पित पवित्रता को इस मैल और गंदगी के बने रहने का हिस्सा बनाता है?” (वही, स्वानुवाद)
व्यवस्था से बाहर रहने की ज़िद्द की यह आत्म-क्रिया ही ब्रह्मराक्षस को उसकी सामाजिक प्रक्रिया से अलग कर देती है। इस तरह यह ब्रह्मराक्षसीय परिघटना आत्म और समाज अर्थात आंतरिकता और बाह्यता के निरेपक्ष द्वैत की मिसाल बनती है। अपने आलोचनात्मक चिंतन में मुक्तिबोध इस मिथ्या द्वैत को नकारते हैं। उनके यहाँ अनुत्तरित सामाजिक प्रश्न आत्मानुसंधान की प्रक्रिया में पुन: खुलते हैं। मुक्तिबोध के लिए यही आत्मानुसंधान सामाजिक रूपांतरण के लिए राजनीतिक अनुसंधान को व्यापक बनाता है। यही अनुसंधान मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी को रहस्यवादी फ़ैंटेसी से अलग बनाता है। मलयज मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी के रहस्य को बखूबी पहचानते हैं उनके लिए मुक्तिबोध के बिंब “रहस्य की रंगारंग छवियों के अंतराल में जीते हुए भी एक औसत अर्थ की निर्मम शिला पर टिके होते हैं।”(268) उनके अनुसार मुक्तिबोध का रहस्य किसी अबुद्धिवाद या अंतर्क्य अनुभव की ओर संकेत नहीं करता बल्कि यह वातावरण को रचने का आग्रह है।
“यह रहस्य है क्योंकि जिज्ञासा है, जिज्ञासा ही रहस्य को जन्म देती है। इस रहस्य के मूल में छिपाने की नहीं, तलाश करने की वृत्ति है, टटोलने और मूर्त करने की, भटकाने या उलझाने की नहीं।” (वही 269) वारदात को तलाशने की यह वृत्ति ही मुक्तिबोधीय अनुसंधान है जोकि वारदात के सत्य का सतत् चिह्नांकन करता है। मुक्तिबोध वारदात के सत्य से ज्ञान की सीमाओं को लाँघते हुए अज्ञात को ज्ञात के दायरे में लाते हैं। (मुक्तिबोध रचनावली 4 73)
गौरतलब है कि मलयज के लिए भी मुक्तिबोध का रहस्य-दर्शन एक प्रकार की ज्ञान-मीमांसा है। (269) इस दिशा में यह भी गौरतलब है कि सुधीर रंजन सिंह के अनुसार मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस के मिथक को ज्ञान-उत्तेजना की उन्न्त फ़ैंटेसी में तब्दील कर देते हैं। (215-216) अत: मलयज यह एक दम ठीक पहचानते हैं कि मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी एक सृजनात्मक छलांग है जोकि अपने सतत् अनुसंधान की प्रक्रिया द्वारा कला के सत्य तक पहुँचना चाहती है। मलयज के शब्दों में, “मुझे ऐसा लगता है कि फ़ैंटेसी वह सृजनात्मक छलांग है जिसके द्वारा मुक्तिबोध इस अनंत रूप-अनुभव और वस्तु-व्यापारमय जगत के केंद्र में पहुँचना और उसकी सारी ऊष्मा को, सारे द्वंद्व को, उसकी सारी समस्याओं और प्रेरणाओं को एक नए रचनाक्रम में पुनर्सजित करना चाहते हैं।” (270)
अत: मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी आक्रामकता (militancy) है। यह वह आक्रामक अनुसंधान (militant inquiry) है जोकि असफलताओं के कारणों का भौतिकवादी विश्लेषण और उत्खनन करता है। इसीलिए मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस के वैयक्तिक विद्रोह की रोमांटिक ट्रैजेडी का व्यापक और गहन अनुसंधान करते हैं। वे ब्रह्मराक्षस के संदर्भ में गोविंद के नीत्शेवादी पाठ की तरह यह नहीं कहना चाहते कि “दुख की यह क्षणिक भावना, प्रत्यक्ष जगत में कालातीत की नीत्शेवादी धारणा और नायक के पत्तन की सूचना देती है जिसके पास असीम ताकत है लेकिन स्वतंत्रता नहीं और जो स्वर्ग और पृथ्वी पर असंतुष्ट हिंसक पशु के रूप में विचरता है।” (85)
बल्कि वे अवचेतन के ब्रह्मराक्षसीय क्षण के गहन उत्खनन द्वारा ब्रह्मराक्षस की रहस्यवादी आत्म-क्रिया की सीमाओं का फ़ैंटेसी के प्रकटत: रहस्यवादी रूप के उतार-चढ़ाव (fluctuations) में विश्लेषण करते हैं। ठीक इसी बिंदु पर मुक्तिबोध, ब्रह्मराक्षसीय असफलता का आक्रामक अनुसंधान करते हुए फ़ैंटेसी के रहस्यवादी पक्ष का व्यवकलनीय निषेध करते हैं। यह व्यवकलनीय निषेध ब्रह्मराक्षस की रोमांटिक ट्रैजेडी का भी विध्वंस है। इस तरह मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस की अफलता के मूलभूत कारणों का विश्लेषण करते इस रोमांटिक ट्रैजेडी को भौतिकवादी ट्रैजेडी में बदल देते हैं। कविता का पहला खंड जहाँ ब्रह्मराक्षस की रोमांटिक ट्रैजेडी का प्रक्षेपण करता है तो वहीं दूसरा खंड इस ट्रैजेडी का भौतिकवादी विश्लेषण और उत्खनन करता है। पहला खंड जहाँ कर्ता के भीतर से संकट को पैदा होते दिखाता है तो वहीं दूसरा खंड पड़ताल की प्रक्रिया को सामने लाते हुए वास्तविक संकट से टकराने और इस संकट से पार पाने की जद्दोजहद में ब्रह्मराक्षस की वेदना-प्रसूत आत्म-क्रिया को ‘संगत पूर्ण’ निष्कर्षों तलक पहुँचाने की स्वप्न-भावना को उत्सर्जित करता है। इस ओर ध्यान न दे सकने के कारण ही नंदकिशोर नवल ब्रह्मराक्षस में केवल रोमांटिक बेचैनी और तड़प ही देख पाते हैं। (निराला और मुक्तिबोध: चार लंबी कविताएँ 120)वे मुक्तिबोध द्वारा इस नीच ट्रैजेडी के भौतिकवादी विश्लेषण पर विशेष ध्यान नहीं दिलाते।
किंतु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी… लाभकारी कार्य में से धन,व धन में से हृदय-मन,और, धन-अभिभूत-अंत:करण में सेसत्य की झाईंनिरंतर चिलचिलाती थी।
आत्मचेतस् किंतु इसव्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन…विश्वचेतस् बे-बनाव!!महत्ता के चरण में थाविषादाकुल मन!मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदितो व्यथा उसकी स्वयं जीकरबताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्यउसकी महत्ता !वह उस महत्ता काहम सरीखों के लिए उपयोग,उस आंतरिकता का बताता मैं महत्त्व !!
पिस गया वह भीतरीऔ’ बाहरी दो कठिन पाटों के बीच,ऐसी ट्रैजेडी है नीच !!(मुक्तिबोध रचनावली 2 319-320)
उपसंहार
मनोविश्लेषण के कार्य-क्षेत्र से संबंधित विक्षिप्तता के विशिष्ट संदर्भ में बाहर और भीतर के आक्रामक अनुसंधान द्वारा मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस की रोमांटिक ट्रैजेडी को भौतिकवादी ट्रैजेडी में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया में वे फ़ैंटेसी की साहित्यिक विधा के रहस्यवादी पक्षों का व्यवकलन करते हुए फ़ैंटेसी को क्रांतिकारी विधा बनाते हैं। इसी निश्चित अर्थ में मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी रहस्यवाद नहीं बल्कि सत्य की साधना है। बाद्यु के किसी अप्रकाशित कार्य की ओर इशारा करते हुए स्लावोज़ ज़िज़ेक सत्य-वारदात के प्रति मालिक (मास्टर) और रहस्यवादी की व्यक्तिपरक अवस्थिति के फर्क को प्रकट करते हैं। उनके अनुसार जहाँ एक ओर मालिक वारदात को नाम करने का छल करता है तो वहीं रहस्यवादी वारदात की वर्णनातीतता (ineffability) पर अड़ते हुए वारदात के प्रतीकात्मक परिणाम की अवहेलना करता है। ज़िज़ेक के शब्दों में, “रहस्यवादी के लिए वारदात में डूबने का परम सुख मायने रखता है जोकि पूरे प्रतीकात्मक यथार्थ को ही मिटा देता है।” (The Ticklish Subject: The Absent Centre of Political Ontology 165,स्वानुवाद)
यहाँ यह रेखांकित करना महत्त्वपूर्ण है कि लकाँ के अनुसार विक्षिप्त अपने आनंदातिरेक (Jouissance) में डूबा हुआ रहस्यवादी ही है जोकि अपनी सामाजिक कड़ी से कटा हुआ है। (वही) हाइडेगर पर केंद्रित अपने एक अन्य निबंध में ज़िज़ेक यह बताते हैं कि सामाजिक प्रक्रिया से कटा होने के कारण विक्षिप्त व्यवस्था के बलात् विकल्प (forced choice) से ‘स्वायत्त’ होता है और उसकी आत्म-क्रिया उसके वास्तविक ‘स्वायत्त’ विकल्प को रेखांकित करती है। (वही 19) निर्जन और सूनी बावड़ी में साधनालीन ब्रह्मराक्षस की आत्म-क्रिया क्या इसी तथाकथित स्वायत्ता की ओर संकेत नहीं करती जहाँ वे व्यवस्था के यथार्थ से प्रत्याहार करते हुए अपने वास्तविक के मतिभ्रम में फंसा हुआ है? गौरतलब है कि हाइडेगर अस्मितामूलक संबंधपरकता से प्रत्याहार करते हैं। इस ओर संकेत करते हुए ग्राहम हर्मन लिखते हैं, “हाइडेगर के लिए अभिज्ञेय (identifiable) तथा संबंधपरक व्यक्तियों से पलायन केवल एक अशुभ सत्ता की अपील द्वारा ही हो सकता है जोकि सभी पहुँचों से हमेशा प्रत्याहृत होते हुए एक अर्ध-ग्रंथित (quasi-articulate) गाँठ की तरह गड़गड़ाता रहता है।” (Harman 242, स्वानुवाद) इस प्रक्रिया में ज़िज़ेक, हाइडेगर के नाज़ी कनैक्शन पर बाद्यु की इस बात को रेखांकित करते हैं कि हाइडेगर भी नाज़ी उभार को सत्य-वारदात समझकर वास्तविक के अपने मतिभ्रम से चिपका हुआ प्रतीकात्मक में जाने को अस्वीकार कर रहा था।
जैसे कि ऐलन बाद्यु रखते हैं, हाइडेगर की नज़रों में नाज़ी ‘क्रांति’ प्रामाणिक राजनीतिक-ऐतिहासिक ‘वारदात’ से औपचारिक रूप से अप्रभेद्य थी। या – इसको दूसरी तरह से रखा जाए – हाइडेगर की राजनीतिक प्रतिबद्धता वास्तविक में अभिनीत गमन (passage a’ l’acte) था जोकि इस तथ्य का गवाह है कि उन्होंने प्रतीकात्मक में अंत तक जाने से इंकार कर दिया –बीइंग एंड टाइम में उनकी महत्त्वपूर्ण खोज के सैद्धांतिक परिणामों के बारे में सोचकर यही लगता है। (वही 21, स्वानुवाद)
ब्रह्मराक्षस के रूप में मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी यह यथेष्टता तथा स्पष्टता से उजागर करती है कि किस तरह वारदात, विनिमय की संरचना से प्रत्याहार के अस्मितावादी निर्धारण में समाहित हो जाती है। अत: वारदात की अनस्मिता का विनिमय की सैद्धांतिकी द्वारा अस्मितावादी निर्धारण दरअसल वारदात के सत्यान्वेषण अत: सत्य के चिह्नांकन का लोप होना है। यह गौरतलब है कि वरिष्ठ कवि दिनेश कुमार शुक्ल के अनुसार ब्रह्मराक्षस एक भटका हुआ पथच्युत सत्यान्वेषी ही है। शुक्ल लिखते हैं:
ब्रह्मराक्षस का बिंब सनातन संघर्ष का बिंब है। ब्रह्मराक्षस एक भटका हुआ पथच्युत सत्यान्वेषी है। वह मुक्तिपथ का पराजित योद्धा है। वह प्रोमीथियस है, ओडिपस है, हैमलेट है। हिम में गलता हुआ धर्मराज युधिष्ठिर है, वह और शर-शैय्या पर पड़ा हुआ, अपने मृत्यु के रथ की वल्गा थामें, भीष्म पितामह भी है। वही द्वारिका में वधिक के बाण का शिकार हुआ कृष्ण भी है। यहूदी धर्मकथा का स्वर्गच्युत ‘आदम’ भी ब्रह्मराक्षस है और सच पूछो तो वह निराला भी है और अंतत: स्वयं मुक्तिबोध भी वही है। (102)
आक्रामक पड़ताल का काम व्यवकलन की सतत् प्रक्रियात्मकता का पुनरारंभ करते हुए विनिमय के तर्क में समाहित हो चुके व्यवकलन को मुक्त करना तथा इसी प्रक्रिया में सत्य का सतत् चिह्नांकन करना है। कविता तथा कहानी दोनों जगहों पर ब्रह्मराक्षस की मुक्ति इसी अर्थ में मुक्ति है। इस तरह यह स्पष्टता से रेखांकित करना ज़रूरी लगता है कि मुक्तिबोध केवल ब्रह्मराक्षस ही नहीं है बल्कि वे अपने ब्रह्मराक्षस होने के खिलाफ भी हैं। इस तरह वे ब्रह्मराक्षस होते हुए ब्रह्मराक्षस होने के खिलाफ हैं ठीक उसी तरह जैसे पूंजीवादी समाज में मज़दूर, अपने मज़दूर होते हुए मज़दूर होने के खिलाफ है। यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि स्वयं मुक्तिबोध भी और कविता में ब्रह्मराक्षस भी बौद्धिक मजदूर ही हैं। मुक्तिबोधीय अनुसंधान, पूंजी से प्रत्याहार के निष्क्रिय कर्ता (अर्थात ब्रह्मराक्षस या मज़दूर) से पूंजी के खिलाफ विद्रोह के सक्रिय कर्ता या सामूहिक आत्म (अर्थात अपने वर्गीकरण के खिलाफ आंदोलित मज़दूर-वर्ग) की जन-संग-ऊष्मा को उजागर करने का कलात्मक उद्यम है।
मेरी ज्वाल जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चले अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।
(मुक्तिबोध रचनावली 1 118)
[पूंजीवादी समाज के प्रति]
पूंजीवादी आधुनिकता की अमूर्त समानता के अविवेक को उद्घाटित करने के लिए मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी पड़ताल की ज़रूरत को रेखांकित करती है। ब्रह्मराक्षस की फ़ैंटेसी की आखिरी पंक्तियाँ भी सत्य-वारदात के पुनरारंभ के लिए सतत् पड़ताल की ज़रूरत को रेखांकित करती हैं, चूंकि मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस के सजल-उर शिष्य के रूप में उसके अधूरे कार्यों को पूर्ण निष्कर्षों तक पहुंचाना चाहते हैं।
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
यह क्यों हुआ !
क्यों यह हुआ !!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य
उसकी वेदना का स्रोत
संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुंचा सकूँ ।
(मुक्तिबोध रचनावली 2 320)
अनूप बाली
पीएचडी रिसर्च स्कॉलर
साहित्यिक कला
स्कूल ऑफ़ कल्चर एंड क्रिएटिव एक्सप्रेशनस (SCCE)
अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली (AUD)
ईमेल: anupbali350@gmail.com


