लखनवी तहज़ीब और ठाठ-बाट के क्या ही कहने, तिस पे लखनवी दबिस्तान-ए-शायरी। बाज़ार-ए-अदब में लखनवी-दबिस्तान की इस छोटी-सी दुकान के आगे बहुत शोर मचाया इस शख़्स ने और अपना नाम लोगों को रटा गया। नाम तो याद ही होगा… असरार-उल-हक़ मजाज़।
Reflections and ideas on writers, writing journeys, creative struggles, and the inner world behind the written word.

लखनवी तहज़ीब और ठाठ-बाट के क्या ही कहने, तिस पे लखनवी दबिस्तान-ए-शायरी। बाज़ार-ए-अदब में लखनवी-दबिस्तान की इस छोटी-सी दुकान के आगे बहुत शोर मचाया इस शख़्स ने और अपना नाम लोगों को रटा गया। नाम तो याद ही होगा… असरार-उल-हक़ मजाज़।

मुक्तिबोधीय रचना-प्रक्रिया में अवचेतन और भाषा के अंतर्संबंध कविता लकड़ी का रावण की अपनी रीडिंग में यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि मुक्तिबोधीय फ़ैंटेसी अपने बिंबों और प्रतीकों की गतिशीलता में अवचेतन को उन्मुक्त छोड़ देती है। अवचेतन की यह उन्मुक्त उड़ान कला के मनोविश्लेषण में विघटन का भी प्रत्युत्तर है। जर्मन दार्शनिक […]